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आनन्द प्रवचन : सातवां भाग
आप जानते हैं कि जिस समय आपने नींद के झोंके लिये, उसी समय कोई दिल पर प्रभाव डालने वाली बात सुनने से रह गई तो कितनी हानि होगी? नहीं, मैं तो समझता हूँ कि आप पूरा उपदेश ही न सुनें तो भी अपनी तनिक भी हानि नहीं समझेंगे। पर इतिहास में ऐसे-ऐसे उदाहरण भी हैं कि निकटभवि पुरुष, संतों के दो-चार वचनों को सुनकर ही संसार से विरक्त हो गये और आत्मकल्याण में जुट गये । इसीलिए प्रवचन या सत्संग में जागृत रहना चाहिए ऐसा मराठी पद्य के तीसरे चरण में कहा है।
जागृत रहने का दूसरा अर्थ है विवेकरूपी नेत्र खुले रखना। शास्त्रों में धर्म-जागरण करने का आदेश मुमुक्षु को बार-बार दिया जाता है। उदाहरणस्वरूप किसी व्यक्ति को धर्मोपदेश सुनते समय नींद तो तनिक भी न आए, किन्तु अपने सांसारिक कार्यों या व्यापारादि के विचारों में मन उलझा रहे । ऐसी स्थिति में द्रव्य-निद्रा न लेने पर भी उसका मन स्थिर नहीं रहेगा और अनमना रहकर वह कुछ भी सुन-समझ नहीं पायेगा। अतः ऐसे समय मन को पूर्णतया केन्द्रित करके वीतराग के वचनों को सुना जाय, और अपने ज्ञान एवं विवेक के द्वारा उन्हें आत्मसात् किया जाय तभी सच्चा जागरण कहा जा सकता है।
(४) अब आती है पद्य के चौथे चरण की बात । इस चरण के द्वारा कवि ने प्रेरणा दी है-"भाइयो ! अगर घर पर एकाकी रहने से निद्रा सताती है तो जहाँ भजन, कीर्तन हो रहा है, वहाँ जाओ और कुछ गाओ ताकि निद्रा से बचो
और ईश्वर का स्मरण कर सको।" ___गाना भी भक्ति का एक साधन है । अनेकानेक भक्त ऐसे हुए हैं जो ज्ञान से कोरे थे और पूजा-पाठ आदि क्रियाएँ भी नहीं कर सकते थे । किन्तु प्रभु का स्मरण करने के लिए वे अपने मन के विचार भजनों में उँडेला करते थे। पर भजन-कीर्तन भी वे हृदय की ऐसी गहराई और तन्मयता से करते थे कि उसके द्वारा ही वे संसार-सागर से पार हो गये।
तो बन्धुओ ! महत्त्व भावनाओं का अधिक है । जो भव्य प्राणी संसार की असारता और अन्यत्व को समझ लेते हैं, वे अपने जीवन को निरंतर शुद्ध बनाते चले जाते हैं। कहा भी है
मुक्ति सौध सोपान भावना अति सुखदाई, है अन्यत्व विचार हृदय में समता लाई । पापी तिरे अनेक बन्धु ! चिन्तन से इनके, पाप-ताप-संताप न मिटते हैं किस-किसके ?
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