SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपना रूप अनोखा २२५ मराठी भाषा में भी एक बड़ा सुन्दर पद्य कहा गया है। वह इस प्रकार है तुम्हीं कीर्तनासी जा, गा ! तुम्हीं कीर्तनासी जागा ॥ तुम्हीं कीर्तनासी जागा । तुम्हीं कीर्तनासी जा, गा ॥ अनुप्रास अलंकार से युक्त इस सुन्दर पद्य में एक ही वाक्य चार जगह दिया हुआ है, किन्तु सब का आशय कुछ भिन्न-भिन्न है। इस पद्य के द्वारा बताया गया है कि व्यक्ति को कीर्तन में जाना चाहिए क्योंकि वहाँ सन्त-समागम होता है। अब मैं इन चारों एक-सी लाइनों के विविध अर्थों को आपके सामने रखता हूँ। (१) पहली लाइन में व्यक्तियों को सम्बोधित करते हुए कहा है"भाइयो, जहाँ जहाँ कीर्तन होता है, वहाँ तुम्हें जाना चाहिए। इस लाइन में 'जा' क्रिया पद और गा सम्बोधन के रूप में है।" (२) दूसरी लाइन में कहा है- "बन्धुओ ! तुम ही कीर्तन की जगह हो । इसका अर्थ वड़ा गूढ़ है । यह बताता है कि चौरासी लाख योनियों में केवल मनुष्य योनि ही सत्संग, धर्मध्यान, भाव-भक्ति या कीर्तन का स्थान है। अन्य किसी भी गति में यह नहीं हो सकता । यहाँ तक कि जिस देव-योनि को पाने के लिए लोग तरसते हैं, वहाँ भी धर्म-ध्यान, साधना या कीर्तन आदि नहीं किया जा सकता।" (३) तीसरे चरण में कहा है-“लोगो ! कीर्तन में जाकर जागते रहो, निद्रा मत लो।" यहाँ जागते रहने से भी दो आशय हैं पहला तो यही कि नींद मत लो। हम प्रायः देखते हैं कि आप लोग जब अपनी दुकान या फैक्ट्री आदि में बैठते हैं अथवा बहीखाता करते हैं, तब तो जरूरत से ज्यादा सजग रहते हैं । क्योंकि अगर नींद आने लगी और हिसाब मिलाते समय एक भी अंक गलत या इधर-उधर लिखा गया तो बड़ी गड़बड़ हो जाती है और आपको पुनः-पुनः श्रम करना पड़ता है । अतः आप पूरी जागरूकता से काम करते हैं । किन्तु यहाँ प्रवचन में बैठे रहकर बार-बार झोंके लिया करते हैं। इसका कारण यही है कि धर्मोपदेश की आपको परवाह नहीं है। जो सुन लिया ठीक है और जो नहीं सुन पाया वह भी ठीक है । क्या फर्क पड़ता है दस-बीस बातें नहीं भी सुनी तो ? पर बन्धुओ, जिन व्यक्तियों को यह संसार कारागार महसूस होता है या वे अपनी आत्मा को शरीर रूपी पिंजरे में कैद मानते हैं, उन्हें वीतराग के वचनों से कभी तृप्ति ही नहीं होती, नींद लेना तो दूर की बात है। इसके अलावा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy