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आनन्द प्रवचन : सातवां भाग
अवधिज्ञान के कारण मरने से पहले सोचता है-"हाय ! अब ये सुखोपभोग मुझे नहीं मिलेंगे और पुनः निम्न गतियों में जाकर घोर दुःख उठाने पड़ेंगे।"
___ इस प्रकार स्वर्ग-संसार में रहकर भी जीव सुख नहीं पाता और पुण्य कर्मों के परिणामस्वरूप देव बनकर भी अनेक प्रकार के दुःख अनुभव करता है। वहाँ से, जैसा कि कवि ने कहा है-'देवराज स्वर्गीय सुखों को त्याग कीट होता है।' जीवात्मा पुनः कीट-पतंग भी बनकर पुनः संसार भ्रमण प्रारम्भ कर देता है।
बन्धुओ, यह संसार वस्तुतः ऐसा ही है । कर्मों के वश में रहकर देव, कीट बन सकता है, राजा पलभर में ही अपने साम्राज्य को खो बैठता है और गन्दी नाली या गोबर आदि घृणित वस्तुओं में जन्म लेकर रहने वाला कीड़ा अगर शुभ-कर्म पल्ले में हों तो मरकर स्वर्गीय सुखों को प्राप्त कर लेता है । यह सब कर्म-रूपी मदारी के द्वारा कराया हुआ नाच नहीं तो और क्या है ? बकरा ही तुम्हारा बाप है ! ___ मैंने एक उदाहरण कहीं पढ़ा था कि एक बड़ा धनवान सेठ था और उसके एक दुकान अनाज की भी थी। सेठ पैसे का धनी अवश्य था पर आत्म-गुणों का नहीं । दिन-रात अपनी दुकान में बैठकर पैसा बनाने की फिक्र में ही वह रहता था पर परलोक बनाने की फिक्र उसने जीवन भर नहीं की, यानी धर्मध्यान से कोसों दूर रहा ।
धन और दुकान में गृद्ध रहने के कारण मरने के पश्चात् वह बकरा बना और इधर-उधर मुँह मारकर पेट भरने लगा। एक दिन वह अपनी दुकान की ओर भी पहुंच गया तथा बोरी में भरी हुई बाजरी खाने लगा।
यह देखकर उसके पुत्र को, जो कि दुकान में बैठा था, बड़ा क्रोध आया और डंडा लेकर उस बकरे पर पिल पड़ा, जो कुछ समय पहले ही उसका पिता था। बकरा मूक पशु था क्या बोलता ? केवल अपने पूर्व जन्म के पुत्र की मार खाता रहा।
उसी समय उधर से एक ज्ञानी संत गुजरे । अपने ज्ञान से उन्होंने यह देखा कि जिस जीव ने जीवन भर परिश्रम करके यह दुकान बढ़ाई थी और अपने पुत्र का पालन-पोषण किया था, वही पुत्र बाप को दो-मुट्ठी अन्न खा लेने पर डंडे से मार रहा है । यह देखकर वे मुस्कुरा दिये ।
दुकान का मालिक यह देखकर बोला-"महाराज ! आप हँसे क्यों ? यह बकरा सारी बाजरी खा जाता अगर मैं इसे नहीं मारता तो। आखिर मेरी
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