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संसार का सच्चा स्वरूप
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कर्मों और कषायों के वश होकर प्राणी नानाकायों को धारण करता है, तजता है जग जाना । है संसार यही अनादि से जीव यहीं दुख पाते,
कर्म-मदारी जीव-वानरों को हा ! नाच नचाते ॥ कितनी यथार्थ और मर्मस्पर्शी भावना है कि प्राणी पाप-कर्मों और कषायों के कारण इस संसार में चौरासी लाख योनियों में बारम्बार जन्म लेता है, दुःख भोगता है और मरता है । अनादिकाल से चले आए इसी संसार में कर्म रूपी मदारियों के इंगितानुसार जीव नाचता रहता है। दूसरे शब्दों में कर्म-रूपी मदारी जीव रूपी बन्दरों को कभी नरक में, कभी निगोद में, कभी तिर्यंच पर्याय में, कभी मनुष्य एवं देवगति में भेजते रहे हैं और इसी प्रकार नाना प्रकार के दुःख देते हुए नचाते रहते हैं । जीव को भी नाचना पड़ता है, क्योंकि वह परतन्त्र होता है और उसे कसने वाली डोरी कर्मों के हाथ में होती है ।
आगे कहा है
देवराज स्वर्गीय सुखों को त्याग कीट होता है, विपुल राज्य से भूपति पल में हाय ! हाथ धोता है। गोबर का कीड़ा स्वर्गों के दिव्य सौख्य पाता है,
अपना ही शुभ-अशुभ कृत्य यह अजब रंग लाता है ।। बन्धुओ, आप यह न समझें कि कर्म केवल पाप करने से ही बँधते हैं, पुण्य आदि उत्तम कार्य करने से नहीं। मैंने एक दिन इस विषय में बताया था कि जीव को शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्म, बन्धन में रखते हैं । भले ही शुभ कर्मों को सोने की और अशुभ कर्मों को लोहे की बेड़ी मान लिया जाय । दुःख दोनों ही देते हैं, केवल उनमें तरतमता होती है।
उदाहरणस्वरूप जीव अपने पुण्य या शुभ कर्मों के बल पर स्वर्ग में पहुँच जाय तब भी क्या होगा ? प्रथम तो वहाँ भी श्रेणियाँ हैं। देवलोकों में पहुँचने पर भले ही भोगोपभोगों के द्वारा वह अपार सुख का अनुभव करता है, किन्तु वहाँ भी अन्य देवों की ऋद्धि अधिक देखकर ईर्ष्या से जलता हुआ दुःख का अनुभव करता है, साथ ही अपनी मन्दारमाला को मुरझाते हुए देखकर मरने के दुःख से विकल बना रहता है। ऐसा वह अकाम निर्जरा करके भवनवासी, व्यंतर अथवा ज्योतिषी देव बनने पर अनुभव करता है और अगर संयोशवश वह वैमानिक देव बन जाय तो सम्यक्दर्शन के अभाव में दुःखी रहता है तथा
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