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सामान सौ बरस का, कल की खबर नहीं..
और हम भी इस शरीर की अनित्यता को सदा देखा करते हैं । यद्यपि इस शरीर में रहने वाली आत्मा अनित्य नहीं है, वह शाश्वत है पर शरीर या जीवन शाश्वत नहीं है । किसी भी क्षण यह नष्ट हो सकता है । कोई व्यक्ति अल्प समय पूर्व स्वजन - परिजनों से हर्ष सहित वार्तालाप कर रहा है तथा हास्यविनोद में निमग्न है, किन्तु कुछ पलों में ही उसके हृदय की धड़कन रुक जाती है और जीवन का अंत हो जाता है । कोई बैठा-बैठा भविष्य के ताने-बाने बुनता होता है कि अगले क्षण ही पृथ्वी पर लुढ़ककर निश्चेष्ट हो जाता है । कोई पत्थर की ठोकर लगते ही इस लोक से प्रयाण कर जाता है और कोई किसी रोग के आक्रमण से यह शरीर छोड़ जाता है ।
कहने का अभिप्राय यह है कि व्यक्ति जब तक जीवित है, नाना मनोरथों का सेवन करता रहता है तथा भविष्य की सैकड़ों योजनाएँ गढ़ता रहता है, किन्तु काल आकर ऐसा झपट्टा मारता है कि प्राणी को पलभर का भी अवकाश दिये बिना उठा ले जाता है और उसके मनोरथ तथा उसकी सम्पूर्ण योजनाएँ ज्यों की त्यों धरी रह जाती है । कहा भी है
आगाह अपनी मौत से कोई बशर नहीं । सामान सौ बरस का कल की खबर नहीं ॥
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वस्तुतः यह शरीर मौत के चंगुल में जब फँस जाता है तो कोई भी शक्ति उसे छुड़ाने में समर्थ नहीं होती और मानव के बरसों के लिए बनाये हुए प्रोग्राम एक पल में ही स्वप्नवत् मिट जाते हैं । यह शरीर आज ठीक है पर कल इसका क्या होगा ? यह नहीं कहा जा सकता ।
सनत्कुमार चक्रवर्ती, जिनके रूप की ख्याति चारों तरफ फैली हुई थी और स्वयं उन्हें भी अपने सौन्दर्य पर बड़ा गर्व था, कहाँ जानते थे कि कल ही मेरे शरीर में एक-दो नहीं, सोलह भयंकर रोग घर कर लेंगे । इसीलिए हमारा धर्म बार-बार कहता है कि - 'शरीर का गर्व मत करो, यह अनित्य है । इसका उपयोग जितना भी हो सके आत्म-साधना में अविलम्ब करलो ।'
जो महापुरुष इस बात को हृदयंगम कर लेते हैं वे अपने शरीर को तनिक भी विराम नहीं देते तथा इससे पूरा-पूरा लाभ उठा लेते हैं । परिणाम यह होता है कि मृत्युकाल में उन्हें तन छोड़ने का रंचमात्र भी खेद नहीं होता, उलटे वे परम प्रसन्न और निश्चित दिखाई देते हैं ।
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मरने से भय कैसा ?
एक संत अपने जीवन की अन्तिम घड़ियाँ गिन रहे थे । उनके चारों ओर शिष्य समुदाय एवं अन्य अनेक भक्त भी अत्यन्त उदास भाव से बैठे हुए थे ।
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