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सामान सौ बरस का, कल की खबर नहीं...!
धर्मप्रेमी बंधुओं, माताओ एवं बहनो !
संवरतत्त्व पर हमारा विवेचन चल रहा है, उनमें से तीस भेदों का वर्णन हो चुका है। बाईस परिषह भी इन्हीं के अन्तर्गत थे जिन पर विचार किया गया था । अब इकतीसवें भेद से क्रमशः बारह भावनाएँ भी बताई जाएंगी जो कि संवर में ही कारण भूत होती हैं ।
बारह भावनाओं में से पहली भावना 'अनित्य भावना' कहलाती है। इस संसार में जितने भी दृश्यमान पदार्थ हैं वे सब अनित्य हैं, स्थायी नहीं। इस विषय पर पूज्यपाद श्री त्रिलोक ऋषि जी ने कहा हैतन धन परिवार अनित्य विचार जैसे,
जामणी चमक जैसे संध्या को सोवान है। ओस बिन्दु जल बुदबुदो सो धनुष्य जान,
पीपल को पान जैसे कुंजर को कान है । स्वप्न मांहीं सिद्धि जैसे, बादल को छाया मान,
सलिल जो पूर जैसे सागर तोफान है। ऐसी जग रीत भाई भावना भरतजी ये,
कहत तिलोकरिख भाव से निरवाण है ।। पद्य में कहा गया है कि 'शरीर, सम्पत्ति एवं परिवार आदि सभी अनित्य हैं । ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार कि बिजली की चमक और सायंकाल का प्रकाश थोड़े काल के लिए ही होता है ।
सर्वप्रथम कवित्त में तन की अनित्यता के विषय में कहा गया है। आप
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