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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
___ भले ही जीव पाप कर्मों से जकड़ा रहकर दुःख पाता है और पुण्य कर्मो के फलस्वरूप स्वर्ग में देव बनकर अपार सुखों का भोग भी कर लेता है । किन्तु जन्म-मरण के बन्धन से या संसार-कारागार से मुक्त वह तभी होता है, जबकि पाप और पुण्य, दोनों ही प्रकार की कर्म-बेड़ियाँ टूट जायँ । __भगवान महावीर के प्रधान शिष्य गौतम स्वामी उनके बड़े योग्य शिष्य थे। संयम, साधना एवं तपश्चर्या आदि में भी उत्कृष्ट थे किन्तु केवल अपने गुरु भगवान महावीर में उनका अतीव मोह था। उनकी साधना के फलस्वरूप उनके केवलज्ञान की प्राप्ति का समय भी आ गया पर वह उन्हें प्राप्त नहीं हुआ जबकि उनसे छोटे गुरु-भाइयों को वह ज्ञान हासिल हो गया ।
इस पर एक बार गौतम ने किंचित् खेद प्रगट करते हुए महावीर स्वामी से कहा-“भगवन् ! क्या कारण है कि मुझसे छोटे सन्त केवलज्ञान प्राप्त कर चुके हैं, किन्तु मुझे वह हासिल नहीं हुआ। क्या मेरी साधना में कहीं त्रुटि हो
रही है ?"
इस पर भगवान ने उत्तर दिया-"गौतम ! तुम्हारी साधना में कोई कमी नहीं है । किन्तु मेरे प्रति तुम्हारा जो अटूट स्नेह है वही बस तुम्हारे कैवल्य की प्राप्ति में बाधक हो रहा है । केवलज्ञान तुम्हारे मस्तक पर मँडरा रहा है और जिस क्षण मेरे प्रति तुम्हारा ममत्व नष्ट हो जाएगा, उसी क्षण तुम उसे प्राप्त कर लोगे।"
_ऐसा ही हुआ। जिस समय भगवान का निर्वाण होने को था, उस समय उन्होंने गौतम स्वामी को किसी कार्यवश अन्यत्र भेज दिया था। जब वहाँ से लौटकर उन्होंने भगवान को शरीर-मुक्त पाया तो विचार करने लगे-"मैं भगवान का सबसे प्रिय शिष्य था किन्तु अपने अन्तकाल के समय उन्होंने मुझे ही अपने पास नहीं रखा । वास्तव में इस संसार में कोई किसी का नहीं है।" ___ बस, यह विचार आते ही उनके हृदय से मोह लुप्त हुआ और उसी क्षण उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। दूसरे शब्दों में मोह-कर्म रूपी सोने की बेड़ी के टूटते ही उन्हें सर्वोच्च ज्ञान प्राप्त हो गया ।
तो बन्धुओ, आप समझ गये होंगे कि राग और द्वेष, इन दोनों को जब नष्ट किया जाता है तभी साधक कर्मों के आवरणों से अपनी आत्मा को मुक्त करके उसमें रही हुई अनन्तदर्शन की एवं अनन्तज्ञान की सर्वोच्च शक्ति का अनुभव कर सकता है यानी उसे प्राप्त करता है । अतः प्रत्येक साधक को कर्मों का क्षय करने के लिए बाईस परिषहों का जीतना आवश्यक है और यही प्रयत्न संवर के मार्ग पर अग्रसर होने में सहायक है।
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