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________________ जाए सद्धाए निक्खन्ते १६५ किन्तु बंधुओ ! इसके लिए अथक प्रयत्न की आवश्यकता है और वह भी एक ही जन्म में ही नहीं वरन् अनेकों जन्मों तक करना पड़ता है। अब प्रश्न उठता है कि वह प्रयत्न किस प्रकार किया जाता है जिससे सम्पूर्ण कर्मों का नाश हो सके और आत्मा अपने अनन्तदर्शन और अनन्तज्ञान को प्रकाशित कर सके। ___ इसके लिए सर्वप्रथम तो साधक के हृदय में सच्चे देव, गुरु एवं धर्म पर विश्वास होना चाहिए तथा भगवान के वचनों पर अटूट आस्था होनी चाहिए। उसके पश्चात् उसे विषय-विकार अथवा राग-द्वेष को कम से कम करते हुए त्याग-तपस्यामय जीवन बिताना चाहिए । कर्मों का बन्धन राग और द्वेष से ही होता है। प्रत्येक बेड़ी तोड़नी होगी श्री उत्तराध्ययनसूत्र के बत्तीसवें अध्याय में स्पष्ट कहा गया है-- रागो य दोसो वि य कम्मबीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति । कम्मं च जाईमरणस्स मूलं, दुक्खं च जाईमरणं वयंति ॥ अर्थात्-राग और द्वष ये दो ही कर्म के बीज हैं । कर्म मोह से उत्पन्न होता है । कर्म ही जन्म-मरण का मूल है और जन्म-मरण ही वस्तुतः दुःख है । स्थानांगसूत्र में भी बताया गया है दुविहे च बंधे। पेज्जबंधे चेव दोसबंधे चेव । अर्थात्-बंधन के दो प्रकार हैं। एक प्रेम का बंधन और दूसरा द्वेष का बंधन । आप सोचेंगे कि द्वष का बंधन तो सही है और वह समझ में भी आता है पर मोह का भी बन्धन होता है क्या ? उत्तर हाँ में दिया जाता है । निश्चय ही मोह का बन्धन भी उतना ही मजबूत होता है, जितना द्वेष का । उदाहरण स्वरूप हम दो प्रकार की बेड़ियों को ले सकते हैं । एक बेड़ी होती है लोहे की और दूसरी सोने की । प्राणी दोनों से ही बँध सकता है और दोनों ही प्रकार की बेड़ियाँ उसे मजबूती से बाँधे रहती हैं । पाप और पुण्य को ऐसी ही बेड़ियाँ कहा जा सकता है । लोहे की बेड़ी पाप कर्मों को समझ लीजिए और सोने की बेड़ी पुण्य कर्मों को। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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