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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
लगेगी, किन्तु अधिक ऊँचाई पर चढ़कर गिरेगा तो हाथ-पैर टूट जाएँगे तथा चोट भी अधिक आएगी।
साधु के लिए भी यही बात है। अरे भाई ! तुमने गृह त्याग कर साधु का बाना पहना है तथा पंच महाव्रत धारण करके उच्च पद को प्राप्त किया है, तो उस पद के अनुसार ही उत्तम साधना करो तथा अपनी भावनाओं को निर्मल रखो। अन्यथा गुणस्थान की उपशम श्रेणी के कारण बहुत ऊँचे चढ़कर नीचे गिरोगे तो तुम्हारी अधिक हानि होगी । अर्थात् तुम्हारी की हुई बहुत-सी साधना एवं तपस्याएँ निरर्थक चली जायेंगी।।
कहने का अभिप्राय भगवान का यही है कि साधु को सच्चे अर्थों में साधुत्व का पालन करते हुए गुणस्थान की क्षपक श्रेणी को ही प्राप्त करना चाहिए । उपशम श्रेणी उस गंदे पानी के समान होती है, जिसमें ऊपर से तो स्वच्छ जल दिखाई देता है, किन्तु नीचे कचरा, रेत या अन्य मलिनता जमी रहती है। इसके कारण तनिक-सी हिलोर आते ही पुनः सारा पानी गंदा हो जाता है और उससे वस्त्र, शरीर आदि किसी भी वस्तु की शुद्धि नहीं होती और न ही वह पीने के योग्य रहता है।
इसलिए जो साधक उपशम श्रेणी प्राप्त करके रह जाता है, उसके बाह्याचार में तो शुद्धता दिखाई देती है, किन्तु अंतर में कषायों और विकारों की मलिनता जमी ही रहती है। परिणाम यह होता है कि तनिक से अशुभ संयोग के मिलते ही हृदय में विकृत भावना की तरंग उठ जाती है और अन्दर जमी हुई मलिनता बाह्य शुद्धता एवं आचार-विचार को भी दोषपूर्ण बनाकर की हुई सम्पूर्ण साधना को निरर्थक बना देती है।
बड़े-बड़े ऋषि और मुनि इसी प्रकार विषय-विकारों के आकर्षण से मन की भावनाओं को पुनः विकृत बनाकर साधना से च्युत हुए हैं और पतन के गहरे गर्त में गिर चुके हैं। एक श्लोक में कहा भी है
विश्वामित्र-पराशरप्रभृतयो वाताम्बुपर्णाशनास्तेऽपि स्त्रीमुखपंकजं सुललितं दृष्ट्वैव मोहं गताः । शाल्यन्न सघृतं पयोदधियुतं ये भुञ्जते मानवा
स्तेषामिन्द्रिय निग्रहो यदि भवेत् विन्ध्यस्तरेत्सागरं ॥ भर्तृहरि ने इस श्लोक के द्वारा बताया है कि-"विश्वामित्र एवं पराशर आदि अनेक बड़े-बड़े तपस्वी एवं ऋषि ऐसे हो चुके हैं, जिनमें से कोई तो वायु ग्रहण करके रहता था, कोई केवल जल ग्रहण करके ही जीवन-निर्वाह करता था
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