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________________ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग इस प्रकार अन्धा व्यक्ति देखने वाले को भी अन्धा बनाता है, पर क्या वह व्यक्ति वास्तव में अन्धा होता है या उसे कुछ दिखता नहीं है ? नहीं, उसे दिखता है पर अन्धे को कुछ दिखाई नहीं देता अतः वह दूसरे को भी अन्धा समझता है । १५४ अपनी श्रद्धा कायम रखना चाहिए ऋद्धियों की प्राप्ति के विषय में भी यही बात है कि जो इन्हें पाने के लायक तप नहीं कर पाता और ऋद्धि-सिद्धि हासिल नहीं कर पाता वह यही कहता है कि ऋद्धियाँ या चमत्कार होते ही नहीं । किन्तु हमें ऐसा कहने वाले अश्रद्धालु व्यक्तियों की बात सुनकर अपने विश्वास को नहीं डोलने देना है । अन्धे को न दिखाई देने पर भी जिस प्रकार संसार की समस्त वस्तुओं का अस्तित्व कायम है, उसी प्रकार ऋद्धि प्राप्त न कर सक पाने पर भी ऋद्धियों - का प्राप्त होना अवश्य ही सत्य है । प्राप्त वे उन्हें ही होती हैं जो उन्हें प्राप्त करने लायक तपश्चर्या और साधना करते हैं । वीतराग और केवलज्ञानियों ने जो कहा है अपने अनुभवों के आधार पर ही कहा है और उनके वचन हमें शास्त्रों में मिलते हैं । प्रत्येक व्यक्ति को शास्त्रों पर विश्वास रखते हुए अपनी साधना और तपश्चर्या यथाशक्ति जारी रखनी चाहिए। कहा भी है- ' जाए सद्धाए निक्खन्ते तमेव अणुपालेज्जा ।' यानी जिस श्रद्धा के साथ निष्क्रमण किया है, उसी श्रद्धा के साथ संयम का पालन करना चाहिए । इस संसार में दो प्रकार के व्यक्ति पाये जाते हैं । एक तो गुणग्राही और दूसरे गुणनिंदक । गुणग्राही व्यक्ति तो जहाँ से और जिससे भी आत्मोन्नति के गुण प्राप्त होते हैं, उन्हें ले लेता है और बाकी सब छोड़ देता है, किन्तु निंदक व्यक्ति न तो स्वयं गुण ग्रहण करता है और न ही दूसरों को गुणी बनने देता है । हमें ऐसे निदकों से बचना चाहिए तथा अपने सद्गुणों को सुरक्षित रखना चाहिए । प्रायः देखा जाता है कि दान देने वाला दानी तो देता है, पर निंदक व्यक्ति कहता है - " मूर्ख घर गँवा रहा है अपने आगे की नहीं सोचता ।" इसी प्रकार तपस्वी तप करता है पर इर्ष्यालु कह देता है - " शरीर को बिगाड़ रहा है, अरे जान है तो जहान है ।" इस प्रकार जो मिथ्यात्वी या अश्रद्धालु होते हैं, वे प्रत्येक सद्गुण को बुरा बताये बिना नहीं रहते । किन्तु उनके बुरा बताने से क्या सद्गुण अवगुण हो सकते हैं ? नहीं । सोना जिस प्रकार सदा चमकता रहता है, गुण भी कभी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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