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________________ १२४ आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग राजा प्रदेशी का दृष्टांत आपके सामने रखा जा रहा है कि वह केवल आत्मा को देखने के लिए ही प्राणियों की हत्या करता रहता था तथा निस्संकोच जीवों का वध किया करता था । अगर उसके हृदय में प्रेम, करुणा एवं दया की भावना होती तो वह खेल-खेल में ही निरपराध प्राणियों को इस प्रकार नहीं मार सकता था, जिस प्रकार अबोध बालक मिट्टी के खिलौनों को सहज ही तोड़ दिया करते हैं। आज की अधिकांश जनता भी इस लोलुपता के कारण अंडे, मछली एवं अन्य पशुओं के मांस को सहज ही उदरस्थ कर जाती है। उन व्यक्तियों के दिलों में अन्य प्राणियों के दुःख और दर्द का अनुभव करने की भावना ही नहीं आती। वे कभी नहीं सोचते कि हमारे इस भोज्य-पदार्थ के लिए किस प्रकार निरीह प्राणियों को लाख बिलबिलाने पर भी जबरन मौत के घाट उतारा जाता है। तारीफ तो यह है कि वे ही व्यक्ति अगर पैर में काँटा चुभ जाय या चाकू-सरौंते से उँगली कट जाय तो बड़े कष्ट का अनुभव करते हैं, पर यह विचार नहीं कर सकते कि निरपराध प्राणियों का गला कटने पर उन्हें कितनी वेदना होती होगी । जो ऐसा विचार करते हैं, वे स्वप्न में भी मांस-भक्षण की कामना नहीं करते। जार्ज बर्नार्ड शॉ और पार्टी ___ कहते हैं कि एक बार महान् साहित्यकार 'बर्नार्ड शॉ' किसी विशाल पार्टी में निमन्त्रित किये गये । समय पर वे वहाँ पहुँचे, किन्तु जब उनके सामने खाद्य पदार्थों की प्लेटें आई तो वे स्तब्ध रह गये और उन्होंने अपना हाथ खाने के लिए बढ़ाया ही नहीं। खाना प्रारम्भ हुआ और सभी व्यक्तियों ने बड़े चाव से हाथ मारना शुरू किया। किन्तु जब कुछ लोगों की दृष्टि बर्नार्ड शॉ पर पड़ी और उन्होंने देखा कि वे चुपचाप बैठे हुए हैं, खाद्य-पदार्थों की ओर नजर भी नहीं डाल रहे हैं तो उनसे बड़े सम्मानपूर्वक पूछा गया___"यह क्या ? आप तो भोजन कर ही नहीं रहे हैं इसका क्या कारण है ? परोसने वालों से कोई भूल हो गई है ?" दुःखी 'शॉ' ने बड़ी कठिनाई से उत्तर दिया-"परोसने वालों से तो कोई भूल नहीं हुई है, पर मैं खा इसलिए नहीं रहा हूँ कि मेरा तो पेट है, कब्रिस्तान नहीं।" लोग समझ गये कि बर्नार्ड शॉ माँस से निर्मित पदार्थों को देखकर दु:खी हो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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