________________
अपराधी को अल्पकाल के लिए भी छुटकारा नहीं होता
११६
कि शुभकर्मों के कारण ही आत्मा इस लोक में मनुष्य शरीर, पाँचों इन्द्रियाँ परिपूर्ण, उच्च कुल, उच्च गोत्र एवं आर्यक्षेत्र में जन्म लेती है। अतः इस जन्म में भी उत्तम कर्म करके पुण्य संचय करना चाहिए। अगर हम ऐसा नहीं करते हैं तो निश्चय ही परलोक में हमारी आत्मा को अशुभ कर्मों के बोझ को ही लादे हुए जाना पड़ेगा और उसके परिणामस्वरूप नाना दुःखों का अनुभव करना होगा।
आशय यही है कि मनुष्य गति पाकर व्यक्ति को उसे निरर्थक नहीं जाने देना चाहिए अन्यथा यह सुन्दर सुयोग पुनः कब मिलेगा और मिलेगा भी या नहीं, कुछ कहा नहीं जा सकता। एक कवि ने दर्शन या श्रद्धारहित जीव को सम्बोधित करते हुए कहा है
हीरे जैसी जिंदगानी खो रहा है क्यों ?
बुरे पाप के बीज जो हैं, बो रहा है क्यों ? कवि ने कहा है- “अरे भाई ! इस हीरे के सदृश बहुमूल्य जीवन को व्यर्थ ही क्यों गँवा रहा है ? श्रद्धा के अभाव में तू सदा अशुभ एवं कुकर्म ही करता रहता है । पर, जानता नहीं है कि ये सब कुकर्म पाप के जहरीले बीज हैं जो पनप जाने पर आत्मा को अनन्तकाल तक कष्ट पहुँचाते रहेंगे। सर्प या बिच्छू का जहर तो यदि अधिक से अधिक हानि पहुँचाए तो केवल एक ही बार के जीवन में कष्ट पहुँचाता है या उसे नष्ट भी कर सकता है। किन्तु पापों का जहर तो आत्मा को न जाने कितने जन्मों तक कष्ट पहुँचाता रहता है । इसलिए पापों के जहर को सर्प आदि के जहर से भी महा भयंकर समझ कर उससे दूर रहना चाहिए।
आज व्यक्ति को एक माला भी प्रतिदिन फेरने के लिये कहा जाय तो वह कह देता है-'मुझे समय नहीं मिलता।' और इतना ही नहीं, वह बड़ी निश्चिततापूर्वक कहता है-"मुझसे धर्म नहीं होता है, पर मैं पाप भी नहीं करता हूँ।"
पापकर्मों का आगमन ऐसे व्यक्तियों से पूछा जाय कि पाप क्या किसी पंचेन्द्रिय की हत्या कर देने को ही कहते हैं ? अरे भाई ! पाप कर्म तो रज-कण के समान इतनी सूक्ष्मता से आकर आत्मा से चिपकते जाते हैं, जिनका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता। मन की भावनाओं का जिस प्रकार क्षण-क्षण में परिवर्तन होता है, उसी प्रकार आस्रव भी होता चला जाता है । तनिक-सी किसी के प्रति ईष्र्या
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org