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________________ इहलोक मीठा, परलोक कोणे दिठा १११ इस गाथा में घुड़सवार का उदाहरण देते हुए बताया गया है कि-विनीत एवं बुद्धिमान शिष्यों को शिक्षा देता हुआ गुरु उसी प्रकार आनन्दित होता है, जिस प्रकार “भई हयं' अर्थात् भद्र घोड़े पर सवारी करता हुआ घुड़सवार प्रसन्न होता है। इसके विपरीत 'बालं' यानी मूों एवं अविनीतों को शिक्षा देता हुआ गुरु उसी प्रकार 'सम्मइ' यानी कष्ट पाता है, जिस प्रकार 'गलियस्सं' अर्थात् दुष्ट अश्व पर सवार होने वाला व्यक्ति दुःखी होता है । तो बन्धुओ, गाथा के अनुसार भद्र घोड़े के समान सुशिष्य को और दुष्ट घोड़े के समान कुशिष्य को समझना चाहिए। जो कुशिष्य होते हैं, वे न तो स्वयं ही गुरु के द्वारा ज्ञान हासिल कर पाते हैं और न ही गुरु को सुख पहुंचाते हैं, उलटे दु:ख का कारण बनते हैं । ___इसलिए साधु-पुरुष उपदेश या ज्ञान-दान देने से पहले लेने वाला योग्य है या नहीं, इसका भी विचार करते हैं । केशी श्रमण भी प्रदेशी राजा से संक्षिप्त वार्तालाप करके इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि राजा में बुद्धि, विनय तथा शालीनता का सर्वथा अभाव नहीं है और प्रयत्न किये जाने पर तथा ठीक ढंग से समझाने पर इसके हृदय में छिपे हुए सद्गुण प्रगट हो सकते हैं। __ आत्मा अनेकानेक गुणों की खान होती है, पर आवश्यकता उस खान में से सद्गुणरूपी रत्नों की खोज कर उन्हें पहचानने एवं बाहर लाने की होती है। सच्चे गुरु भी शिष्य के हृदय में छाये हुए अज्ञानरूपी अन्धकार को नष्ट करके ज्ञानरूपी दीपक प्रज्वलित करते हैं, जिसके प्रकाश में सद्गुणरूपी रत्न दिखाई देने लगते हैं। __ केशी स्वामी भी राजा प्रदेशी के हृदय में सम्यकज्ञान एवं विवेक की ज्योति जलाने का विचार करते हुए उन्हें अपने समक्ष बैठने तथा प्रश्न पूछने की आज्ञा प्रदान करते हैं। अब राजा किस प्रकार प्रश्न करेंगे, और किस प्रकार महामुनि उनका समाधान करेंगे ? यह अगली बार बताया जा सकेगा, क्योंकि आज समय हो चुका है । ॐ शांति ! Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004010
Book TitleAnand Pravachan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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