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आनन्द प्रवचन : सातवाँ भाग
अरोइ अत्यं कहिये विलावो,
____ असम्पहारे कहिये विलावो । विक्खित्तचित्ते कहिये विलावो,
बहुकुसीसे कहिये विलावो॥ श्लोक में बताया गया है कि चार प्रकार के व्यक्तियों को उपदेश देना विलाप या प्रलाप है, अर्थात् ऐसे व्यक्तियों को उपदेश नहीं देना चाहिए, क्योंकि वह निरर्थक चला जाता है ।
ऐसे व्यक्तियों में प्रथम वे आते हैं, जिनकी उपदेश सुनने में रुचि ही नहीं होती। अरुचि रखने वाले व्यक्तियों को उपदेश देना भैंस के आगे वीणा बजाने के समान व्यर्थ होता है । दूसरी तरह के व्यक्ति वे होते हैं जो थोड़ी-बहुत रुचि और कुछ लोक-व्यवहार के कारण उपदेश सुन तो लेते हैं, किन्तु उसे ग्रहण नहीं करते तथा इस कान से सुनकर उस कान से निकाल देते हैं । ऐसे व्यक्तियों को उपदेश देना भी व्यर्थ प्रलाप करना है । तीसरे प्रकार के व्यक्ति वे होते हैं, जिनका चित्त विक्षिप्त होता है । कुछ बुद्धि की जड़ता, कुछ संस्कारों का अभाव एवं कुछ मिथ्याभ्रम और संदेहों को चित्त में रखने वाले विक्षिप्त लोगों को उपदेश देना भी व्यर्थ तथा अपनी शक्ति का दुरुपयोग करना होता है । वे उपदेश सुन भी लें तो अपनी सनक के कारण उसका कुछ भी लाभ नहीं उठा पाते । ___अब चौथे प्रकार के व्यक्ति आते हैं, जिनके सामने भी उपदेश देना व्यर्थ है । श्लोक में कुशिष्यों को इस प्रकार के व्यक्ति कहा गया है । कहते हैं-बहुत सारे अयोग्य शिष्य एकत्र हो जायँ, तब भी गुरु का उपदेश देना चिकने घड़े पर पानी डालने के समान हो जाता है । यद्यपि कुशिष्य तो एक भी हो तो वह उनके लिए परेशानी और उपाधि का कारण बन जाता है अगर वैसे ही बहुत से हों, तब तो फिर कहना ही क्या है ? उन सबसे माथा-पच्ची करने में ही गुरु का समय नष्ट हो जाएगा तो वे अपनी संयम-साधना कब करेंगे ?
...विनीत या सुयोग्य और अविनीत या कुयोग्य शिष्य को शिक्षा अथवा उपदेश देने पर गुरु किस प्रकार सुख-दुख का अनुभव करते हैं, इस विषय में 'श्री उत्तराध्ययन सूत्र' में एक बड़ी सुन्दर गाथा दृष्टांत सहित दी गई है
रमए पंडिए सासं, हयं भव वाहए। बालं सम्मइ सासंतो, गलियस्सं व वाहए ।
-अध्ययन १, गाथा ३७
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