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चिन्तामणि रत्न, चिन्तन
___'निशा विरामे' अर्थात् रात्रि के अन्त में जिस समय रात्रि का अन्त होता है उसे ब्राह्म मुहूर्त कहते हैं, क्योंकि वह समय ब्रह्म चिन्तन के लिए उपयुक्त माना जाता है । ब्रह्म का अर्थ परमात्मा होता है और आत्मा भी । तो उस समय जबकि मनुष्य का दिमाग रात्रि विश्राम के पश्चात् स्वस्थ हो जाता है और चारों ओर का वातावरण भी कोलाहल रहित यानी शान्त होता है, मनुष्य को चिन्तन करना चाहिए तथा चिन्तन करते समय यह विचार करना चाहिए कि-'मेरा मकान जल रहा है और ऐसी स्थिति में भी मैं सो कैसे रहा हूँ ?'
कवि ने जीवन को मकान की उपमा दी है और उसमें लगी हुई कषायों की प्रबल आग की ओर व्यक्ति का ध्यान आकर्षित किया है। यानी क्रोध, मान, माया, लोभ एवं राग-द्वेषादि रूप अग्नि मनुष्य के चारित्र को जला देती है और चारित्र का नष्ट होना जीवन नष्ट होना ही है । 'निशीथभाष्य' में कहा भी है--
जं अज्जियं चरित्तं देसूणाए वि पुवकोडीए ।
तंपि कसाइयमेत्तो, नासेइ नरो मुहुत्तेणं । देशोनकोटि पूर्व की साधना के द्वारा जो चारित्र अर्जित किया है, वह अन्तर्मुहूर्त भर के प्रज्ज्वलित कषाय से नष्ट हो जाता है।
तो बन्धुओ ! कषायों की आग वास्तव में ही इतनी भीषण होती है कि वह अन्तर्मुहूर्त के लिए भी प्रज्वलित हो जाय तो साधकों की सम्पूर्ण साधना एवं महायोगियों की वर्षों तक की हुई तपस्या के फल को सर्वथा भस्मीभूत कर देती है और इस सब के नष्ट होने का दूसरा नाम ही जीवन नष्ट होना या जीवन रूपी मकान का जल जाना है। एक उर्दू भाषा के कवि ने भी मनुष्य को चेतावनी दी है
__ "मकुनखानये जिन्दगानी खराब,
बसैलाब खेलोबद नासबाब ।" 'मकुन' यानी मत कर । संस्कृत में इसी को 'मा कुरु' कहते हैं। दोनों भाषाओं के शब्दों में बड़ा साम्य है । तो कवि ने कहा है जिन्दगी रूपी जो खाना यानी मकान है, उसे खराब मत कर । मकान के लिए 'खाना' शब्द आप और हम भी काम में लेते हैं । यथा-दवाखाना, हाथीखाना आदि-आदि । शायर ने इसीलिए लिखा है'अपने बद कार्यों से इस जिन्दगी रूपी मकान को खराब मत करो।'
आप जिसमें रहते हैं, उस मकान को पानी और आग दोनों से नुकसान पहुँचता है। पुराने और जर्जर मकान तो पानी बरसने से ढहते हैं पर भीषण बाढ़
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