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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
"स्वकर्मी गुंग असतांना, भोगणें यातना नाना, प्रयत्न धीर न सोडावे, तेधवा देवपण पावे ।"
पद्य का आशय यही है कि धीर पुरुष जो भी कार्य हाथ में ले, उसे नाना प्रकार की यातनाएँ भोगने पर भी छोड़े नहीं और ऐसा करने पर ही वह अपने शुभ कर्मों के बल पर देवत्व को हासिल कर सकता है ।
बन्धुओ, हम साधु हैं पर हमारे हाथ में भी कार्य हैं । वे कार्य हैं अपनी आत्मा को कर्म - रहित करने का प्रयत्न करना तथा अन्य प्राणियों को भी भगवान की आज्ञा के विषय में समझाते हुए सन्मार्ग पर लाना । आप श्रावक हैं और आपके समक्ष भी अनेक कर्तव्य हैं । जैसे—समाज की सेवा, दीन-दुखी एवं अभावग्रस्त व्यक्तियों की सहायता और उसके साथ ही श्रावक धर्म का पालन करते हुए आत्मा को उन्नत बनाना । देशभक्तों के सामने भी देश की रक्षा करते हुए अनेक कर्तव्यों का पालन करना पड़ता है ।
इस प्रकार पुरुषार्थी व्यक्तियों के समक्ष भिन्न-भिन्न कार्य रहते हैं और सभी कार्य अपने-अपने स्थान पर महत्वपूर्ण हैं । पर आवश्यकता केवल इसी बात की है कि हाथ में लिए हुए कार्य को प्रत्येक व्यक्ति उत्साह, सचाई एवं परिश्रम से करता चला जाय । यह तो निश्चित कि उत्तम कार्य करने में अनेक विघ्न-बाधाएँ सामने आती हैं और दुर्जन व्यक्ति भी बीच-बीच में रोड़े अटकाए बिना नहीं रहते । वे न तो स्वयं ही कोई अच्छा कार्य करते हैं और न ही दूसरों को करने देते हैं ।
भर्तृहरि ने अपने एक श्लोक में कहा हैअकरुणत्वमकारणविग्रहः,
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परधने परयोषिति च स्पृहा । स्वजन बंधुजनेष्वसहिष्णुता,
प्रकृतिसिद्धमिदं हि दुरात्मनाम् ॥
निर्दयता, अकारण बैर करना, दूसरे के धन और स्त्री की सर्वदा इच्छा करना, अपने परिवार और मित्रों की उन्नति न देख सकना, यह दुष्टों की स्वाभाविक आदत है ।
कहने का आशय यही है कि आप लोग उत्तम कार्य करने का विचार करते हैं तथा समाज-सेवा का बीड़ा उठाते हैं; किन्तु दुर्जन व्यक्ति आपके अच्छे कार्यों की दूसरों के द्वारा सराहना अथवा प्रशंसा किया जाना भी सहन नहीं कर पाते अतः नाना प्रकार से आपके मार्ग में बाधक बनते हैं अथवा किसी न किसी प्रकार से कीचड़ उछालकर आपको बदनाम करने का प्रयत्न भी कर सकते हैं । पर हमारा आपसे यही कहना है कि जब आप अच्छे कार्य को प्रारम्भ कर दें और उसे सम्पन्न करने का
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