________________
आनन्द प्रवचन | छठा भाग
- अगले दिन साहूकार और वह रुपये लेने वाला व्यक्ति, दोनों ही दरबार में उपस्थित हो गये । मंत्री ने साहूकार से पूछा- "तुम्हारा शर्तनामा कितना लम्बा था ?"
साहूकार ने कहा--"मंत्री जी ! शर्तनामा एक हाथ लम्बा था।" ___ यह सुनते ही रुपये लेने वाला व्यक्ति क्रोध के मारे भान भूल गया और चिल्लाकर बोला- "सरकार ! यह साहूकार झूठा और मक्कार है । पाँच सौ रुपये का शर्तनामा हाथ भर का क्या होता, वह तो केवल बालिश्त भर का ही था।" ।
इस प्रकार स्वयं रुपये लेने वाले के मुंह से ही सच्ची बात प्रकट हो गई और उसे बेईमानी करने के अपराध में जेल भेज दिया गया।
तो बंधुओ भले ही पैसा थोड़ा था, किन्तु दूसरे का धन हड़प जाने की भावना होने के कारण उस व्यक्ति को तुरन्त ही कुफल प्राप्त हो गया।
___ इसलिए व्यक्ति को कभी दूसरे का धन प्राप्त करने की वाञ्छा नहीं करनी चाहिए तथा इसी प्रकार पराई स्त्री की ओर भी कुदृष्टि नहीं डालनी चाहिए। परस्त्री का अभिलाषी रावण किस प्रकार अपने कुल सहित नष्ट हुआ, यह तो जगतप्रसिद्ध बात है ही। पूज्य श्री अमीऋषि जी म० ने भी कहा है
परत्रिय संग किये हारे कुल, कान दाम,
नाम धाम धरम आचार दे विसार के । लोक में कुजस नहीं करे परतीत कोउ,
प्रजापाल दंडे औ विटंबे मान परि के । पातक है भारी दुःखकारी भवहारी नर,
कुगति सिधावै वश होय परनारि के । यातें अमीरिख धारे, शियल विशुद्ध चित्त,
तजो कुव्यसन हित-सीख उर धरि के ॥ महामना संत श्री का कथन है कि जो नीच पुरुष अपने धर्म, आचार एवं विवेक का त्याग करके परस्त्री-गमन करते हैं वे अपने कुल का गौरव, लज्जा एवं धन आदि सभी से रिक्त हो जाते हैं । ऐसे व्यक्ति संसार में अपयश का और अप्रतीति का पात्र बनते हुए न्यायालय से भी दण्डित होते हैं । इतना ही नहीं, इस जन्म में परस्त्री-गमन के पाप की सजा भोग लेने पर भी मरने के पश्चात् कुगति को प्राप्त होते हैं । इसलिए प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति को शुद्ध हृदय से शीलव्रत का पालन करते हुए स्व-स्त्री से सन्तुष्ट रहना चाहिए।
तीसरी बात है पर-निन्दा । पराई निन्दा करने से किसी का कोई लाभ नहीं होता, उलटे उसके मूल में ईर्ष्या एवं द्वषादि कषायों के जागृत रहने से अनेकानेक कर्मों का बंधन होता रहता है । इसलिए अपने धन, जन एवं ज्ञानादि में सन्तोष रखते हुए मनुष्य को औरों की निन्दा से बचना चाहिए।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org