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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
चेतन, ज्ञान, दया और नेम आदि का नामकरण करते हुए कवि ने अपनी भाषा को मनोरंजक बनाया है पर उनका भाव यही है कि-'जीवात्मा कषायों के फेर में पड़ कर अपने विवेक को खो बैठता है तथा ज्ञानी पुरुषों के उपदेशों को भी इस कान से सुनकर उस कान से निकाल देता है। परिणाम यही होता है कि विवेक और ज्ञान के अभाव में वह करुणा, दया एवं सद्भावना आदि के उत्तम गुणों को नहीं अपना पाता । पर ऐसा होना नहीं चाहिए। व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने मन को व्रतों और नियमों के अंकूश में रखकर कषायों के आक्रमण से बचाए तथा कर्म-बंधन न होने दे। अन्यथा एक-एक क्षण करके जीवन सम्पूर्ण हो जायगा और 'कालूराम' यानी काल के आते ही विपत्ति में पड़ना पड़ेगा।
उस समय फिर कुछ भी नहीं हो सकेगा और केवल पश्चात्ताप ही हाथ आयगा। मृत्यु एक क्षण का भी मानव को अवकाश नहीं देतो । कहा भी है
नाणागमो मच्चुमुहुस्स अस्थि । मृत्यु के मुख में पड़े हुए प्राणी को मृत्यु न आए, ऐसा कभी नहीं हो सकता।
तो बंधुओ ! इसीलिए भगवान ने फरमाया है कि मुमुक्षु प्राणी को चाहे वह ग्रहस्थ हो या साधु, सदा अनुकषाई यानी अल्प कषाय वाला बनने का प्रयत्न करना चाहिए। तभी वह संवर-मार्ग पर यथाविधि गमन कर सकेगा। (२) अल्प इच्छाएँ
गाथा में दूसरा शब्द आया है-'अप्पिछे।' इसका अर्थ है-अल्पइच्छाएँ रखने वाला। जब तक साधक वीतराग अवस्था तक नहीं पहुँचता है, तब तक उसकी इच्छाएं समाप्त नहीं हो सकतीं। किन्तु प्रयत्न करते रहने से वह अपनी इच्छाएं कम से कम करता जा सकता है । जो व्यक्ति ज्यादा इच्छाएँ रखता है, वह लोम और लालच में फँसकर अधिक परिग्रह इकट्ठा कर लेता है तथा अधिकाधिक पाप-कर्मों में प्रवृत्त होता है। किन्तु जो भव्य प्राणी इच्छाओं को कम करता चला जाता है, उसकी सांसारिक पदार्थों पर से आसक्ति कम होती जाती है और वह स्वतः ही पाप-क्रियाओं से बचने लगता है।
हमारे धर्म-शास्त्रों ने इच्छाओं पर रोक लगाने के लिए ही गृहस्थों के लिए पाँचवाँ परिग्रह-परिमाण व्रत बताया है। इसे ग्रहण करने पर व्यक्ति कम से कम अपने परिग्रह की एक सीमा तो बाँध सकता है ताकि वहाँ तक पहुंचने पर संतोष धारण किया जा सके । अन्यथा तो इच्छाएँ कभी भी पूर्ण नहीं होती तथा कभी उनका अन्त भी नहीं आता । कहा भी है
"इच्छा हु आगाससमा अणंतिया।" इच्छाएं आकाश के समान अनन्त या असीम हैं ।
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