SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 326
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१४ आनन्द प्रवचन | छठा भाग भगवान नेमिनाथ तोरण पर से वापिस कैसे लौट जाते और सिद्धार्थ यशोधरा एवं अपने एकमात्र पुत्र नन्हें से राहुल को छोड़कर किस प्रकार वन गमन करते ? दो विभूतियाँ जैनाचार्य श्री उदयसागर जी महाराज, जिन्हें आज भी व्यक्ति बड़ी श्रद्धा एवं भक्तिपूर्वक स्मरण करते हैं वे जब युवा थे तो उनका विवाह तय हो गया । तत्पश्चात् उनकी बारात ससुराल पहुँची और तोरण द्वार पर ज्योंही उन्होंने अपना सिर नीचा किया, संयोगवश उनके मस्तक पर से कलंगी समेत साफा नीचे गिर गया । लोग दौड़े और उनके मित्रों ने साफा उठाकर पुनः उनके मस्तक पर रखना चाहा । किन्तु उदयसागर जो के मन में उसी क्षण यह विचार आगया कि जो वस्तु छूट चुकी है उसे पुनः ग्रहण करना ठीक नहीं है । यह विचार आते ही अपने गुरुजनों के तथा बरातियों एवं ससुराल वालों के लाख समझाने पर भी न उन्होंने मस्तक पर साफा रखा और न ही विवाह किया तथा उलटे पैरों लौट आये । घर आकर उन्होंने अपना इरादा व्यक्त कर दिया कि वे संयम ग्रहण करना चाहते हैं । इरादे के अनुसार ही उन्होंने साधुत्व ग्रहण कर लिया तथा आत्म-कल्याण के प्रयत्न जुट गये । इसी प्रकार श्री जयमलजी म० जिनके नाम से आज भी सम्प्रदाय चल रही है, अपने विवाह के केवल छः मास पश्चात् मेड़ता में व्यापार के सिलसिले में आये और स्थानक में संतों के दर्शनार्थ गये । किन्तु स्थानक का द्वार छोटा था अतः सिर झुकाकर अन्दर आने के प्रयत्न में उनकी पगड़ी नीचे गिर गई । पगड़ी के गिरने पर उन्होंने पुनः उसे मस्तक पर नहीं रखा और न लौटकर अपने घर ही गये । उसी क्षण उन्होंने प्रवृज्या लेने का निश्चय कर लिया और यह नियम कर लिया कि जब तक साधु का प्रतिक्रमण याद नहीं कर लूंगा, बैठूंगा नहीं और न ही अन्नजल ग्रहण करूँगा । खड़े-खड़े ही तीन दिन में उन्होंने साधु का प्रतिक्रमण याद कर लिया तथा दीक्षा लेने से पूर्व किया जाने वाला ज्ञान प्राप्त करके दीक्षा ले ली । उदयसागरजी म० और जयमलजी म० दोनों ही युवा थे पर एक तो विवाह करने के लिए जाकर भी लौट आये और दूसरे ने विवाह के छः मास पश्चात् ही साधु धर्म अंगीकार कर लिया । कहने का अभिप्राय यही है कि तरुणावस्था में इन्द्रियों पर संयम रखना बड़ा दुष्कर है किन्तु जन्म, जरा और मृत्यु से सदा के लिये अपनी आत्मा को मुक्त करने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy