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________________ ३०२ आनन्द प्रवचन | छठा भाग वह जितना भी देता है उसका लाभ औरों के अनेक गुना अधिक दिये जाने पर जितना अधिक उठाया जा सकता है उतना ही वह भी प्राप्त कर सकता है। आप विचार करेंगे कि ऐसा कैसे हो सकता है ? धनी व्यक्ति तो सहज ही एक हजार रुपये एक बार में दान देने योग्य होता है और दरिद्र व्यक्ति मुश्किल से आधी रोटी दे सकता है, फिर दोनों ही बराबर कैसे लाभ प्राप्त कर सकते हैं ? इस विषय में आपको भली-भाँति समझना चाहिए कि दानदाता के लिए यह महत्वपूर्ण नहीं है कि उसके द्वारा दिया गया धन प्रचुर मात्रा में है या दिया जाने वाला खाद्य पदार्थ स्वादिष्ट, सरस अथवा बहुमूल्य है। देखना यह चाहिए कि देने वाले की भावना प्रशस्त है या नहीं ? 'संयुक्तनिकाय' में कहा भी है 'अप्पमा दक्खिणा दिन्ना, सहस्सेन समं चिन्तं ।' यानी थोड़े में से भी जो दान प्रशस्त भावना पूर्वक दिया जाता है वह हजारों, लाखों के दान की बराबरी करता है। संगम ग्वाले ने बड़ी कठिनाई से प्राप्त खीर को भी मासखमण का पारणा करने वाले मुनिराज को अति उत्कृष्ट भावना पूर्वक दान में दे दी और इसके फलस्वरूप अगले जन्म में राजगृह नगर के गोभद्र श्रेष्ठ का पुत्र शालिभद्र हुआ, जिसने मगध सम्राट को भी चकित कर दिया । चन्दनवाला ने भी भगवान महावीर को कौनसी अमूल्य वस्तु दान में दी थी ? सूखे उड़द के बाकुले ही तो दिये थे । किन्तु उन बाकुलों के द्वारा ही उसने अपने संसार को सीमित कर लिया था। आज हम देखते हैं कि दान देने वाले व्यक्ति अपनी प्रशंसा के लिए तथा दानदाताओं की सूचि में अपना नाम सदा के लिए लिखवा देने की इच्छा से दान देते हैं। दान देते समय जो उत्कृष्ट भावना उनमें होनी चाहिए, उसका तो एक अंश भी वहाँ दिखाई नहीं देता। क्योंकि हम घर-घर में जाते हैं और देखते हैं कि धनी व्यक्ति सन्त-मुनिराज को अपने हाथ से देने का समय भी नहीं निकाल पाते । वे देते हैं केवल मान और प्रतिष्ठा की प्राप्ति के लिए। पर ऐसा हजारों रुपयों का दान भी वह सुफल नहीं देता, जितना एक गरीब व्यक्ति अपनी थाली में से द्वार पर आए हुए साधु को भावनापूर्वक आधी रोटी देकर प्राप्त कर लेता है । जिस व्यक्ति का हृदय उदार होता है वही दान का सच्चा लाभ हासिल कर सकता है। सच्ची ईद मनाई है कहा जाता है कि किसी शहर का एक वोहरा ईद के दिन कीमती वस्त्र पहन कर बाजार में घूम रहा था । घूमते-घामते बह एक पान वाले की दुकान पर जा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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