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________________ आनन्द प्रवचन | छठा भाग पर सच्चे श्रमण के लिए कहीं भी कोई कठिनाई नहीं है । अगर उसका चारित्र्य उसके वेश के अनुकूल है तथा वह सम्यक् रूप से तप की आराधना करता है तो संसार के बन्धन उसे जकड़े टूट जाते हैं । ३०० इस विषय में भी भगवान ने स्पष्ट कहा है जे वज्जए एए सया उ दोसे, से सुव्वए होइ मुणीण मज्झे । अयंसि लोए अमयं व पूइए, आराहए लोगमिणं तहा परं ॥ ―― ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं नहीं रह सकते, स्वयं ही Jain Education International - उत्तराध्ययन सूत्र, १७-२१ जो मुनि समस्त दोषों को सदा के लिए त्याग देता है, वह मुनियों में श्रेष्ठ एवं सुव्रती कहलाता है । ऐसा मुनि इस लोक में अमृत के समान आदरणीय बनता हुआ अपने परलोक की भी उत्तम आराधना कर लेता है । भगवान के इस कथन से स्पष्ट है कि भले ही व्यक्ति साधु वेशधारी मुनि हो या सम्यक् व्रतधारी श्रावक हो, वही भव्य जीव इस संसार से मुक्त हो सकता है जो कि सम्यक् धर्म का पालन करे, अपने ज्ञान के अनुसार आचरण पर दृढ़ रहे और समस्त विघ्न-बाधाओं एवं परिषहों का मुकाबला समभाव पूर्वक करते हुए संवर के मार्ग पर दृढ़ता से बढ़ता रहे। वह भव्य प्राणी ही अपने इस लोक एवं परलोक को सुधार सकता है जो समयमात्र का भी प्रमाद न करता हुआ शरीर एवं इन्द्रियों के सशक्त रहते हुए धर्मसाधना कर लेता है तथा आज के कार्य को कल के लिए नहीं छोड़ता । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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