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________________ २७२ आनन्द प्रवचन | छठा भाग कि मानव शरीर एक खेत के समान है अतः इसे बंजर न रखकर इससे लाभ उठाना चाहिये । उन्होंने कहा है-इस शरीर रूपी खेत के किसान मन, वचन एवं कर्म हैं तथा इसमें बोये जाने वाले दो प्रकार के बीज हैं, पाप और पुण्य । सरल भाषा में कही गई इस बात में उन्होंने सहज ही बता दिया है कि मन, वचन और कर्म रूपी तीनों किसान अपने शरीर रूप खेत में चाहें तो पाप के बीज बोकर अपने संसार को बढ़ा सकते हैं और चाहें तो पुण्य रूपी बीज वपन करके संसार को कम कर सकते हैं। एक किसान अपने खेत में जिन बीजों को डालता है उसी की फसल प्राप्त करता है । वह बाजरी बोकर गेहूँ नहीं पा सकता और चने बोकर चावल हासिल नहीं कर सकता । इसी प्रकार मन, वचन एवं कर्म रूपी किसान पाप के बीज डालकर पुण्य रूपी फसल प्राप्त नहीं कर सकते अर्थात् पाप-पूर्ण कार्य करके स्वर्ग और मोक्ष हासिल नहीं किया जा सकता है । अगर हमें जन्म-मरण से छूटकर मोक्ष प्राप्त करना है तो अनिवार्य रूप से मन, वचन एवं क्रिया के द्वारा इस शरीर की सहायता से पुण्य एवं निर्जरा के कार्यों को करना पड़ेगा । जैसे भी कर्म किये जाएँगे, वैसा ही फल प्राप्त होगा, इसमें फर्क नहीं हो सकता। हमारा आर्य होना भी तभी सार्थक होगा जबकि हम दानवी वृत्ति का त्याग करके ब्रह्मवृत्ति को अपनाएँगे तथा अपनी आत्मा को परमात्मा बना लेंगे। मनुष्य की वृत्तियाँ __ आप विचार करेंगे कि जब हम मनुष्य हैं तो हमारी वृत्ति मनुष्य-वृत्ति के अलावा और कौन-सी हो सकती है ? पर ऐसी बात नहीं है । भले ही मनुष्य, मनुष्य है पर उसमें वृत्तियाँ तो अनेक प्रकार की होती हैं और वे वृत्तियाँ ही उसके परलोक का निर्माण करती हैं । अगर मनुष्य की वृत्तियाँ एक जैसी ही हों तो सारे ही मनुष्य मरकर एक ही स्थान पर यानी नरक में, स्वर्ग में या मोक्ष में चले जाँय । पर क्या ऐसा होना संभव है ? नहीं, मन बड़ा चंचल और विलक्षण होता है तथा उसे अंकुश में न रख पाने पर या अंकुश में रखने पर मानव की वृत्तियों में अन्तर आ जाता है। ये वृत्तियाँ अनेक प्रकार की हो सकती हैं, किन्तु आज मैं मुख्य रूप से चार वृत्तियों के बारे में आपको बताता हूँ। इन चार वृत्तियाँ में पहली है दानवी, दूसरी मानवी, तीसरी दैवी और चौथी ब्रह्मवृत्ति है । एक पद्य में इनके विषय में कहा गया हैदानवी वृत्ति का है यह लक्षण मेरा सो मेरा है तेरा भी मेरा है । मानवी वृत्ति का है यह लक्षण, मेरा सो मेरा है तेरा सो तेरा है ॥ दैवी वृत्ति का है यह लक्षण, तेरा तो तेरा है मेरा भी तेरा है। ब्रह्मवृत्ति में अंधेरा मिटा सब, झूठा बखेड़ा न तेरा न मेरा है ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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