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________________ २४६ आनन्द प्रवचन | छठा भाग को अधिक पाने की लालसा में रहते हैं तथा उसी के लिये प्रयत्न करते हैं । उनका ध्यान उस धन की ओर नहीं जाता जो शिवपुर की प्राप्ति में सहायक बनता है । इसलिए कवि ने उसी आत्मिक धन की ओर मानव का ध्यान दिलाते हुए कहा है जो होवे धन तुझको प्यारा, पारस बैंक में रखदे सारा । नहीं सूद का पता मिलेगा गिनके किस दर का । क्या कहा है कवि ने ? यही कि-अगर तुझे धन बहुत प्यारा है तो बड़ा व्यापार करके आत्मिक धन का उपार्जन कर और उसे पृथ्वी पर के किसी जड़ द्रव्य को रखने वाले बैंक में नहीं, वरन भगवान पार्श्वनाथ के बैंक में रख दे। इसका परिणाम यह होगा कि जहाँ मर्त्यलोक का बैंक थोड़ा-सा ब्याज तुझे देता है, वहाँ भगवान पार्श्वनाथ का बैंक इतना ब्याज देगा कि तू न उसकी दर का पता लगा सकेगा और न ही मिले हुए ब्याज की गणना ही कर सकेगा । वह संख्यातीत होगा और उस धन से तू मोक्ष का शाश्वत सुख खरीद सकेगा। आगे कहा गया है "दास दसौंधी कहता प्यारे, अमृत छोड़ जहर मत खा रे, हो भवसागर पार भजन कर दिल से दिलवर का। बनज कुछ करले उस घर का ॥ इस भजन के रचयिता दसौंधी दास कहते हैं- "प्रिय बन्धु ! अमृत को छोड़कर जहर मत खाओ।" आप समझ ही गए होंगे कि जहर क्या है और अमृत क्या है ? क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह, ममता, आसक्ति और गृद्धता आदि जो भी मानव-मन के विभाव हैं, ये सब विष का काम करते हैं तथा आत्मा के सम्पूर्ण सद्गुणों का नाश करके उसे कुगतियों में पहुँचाकर घोर कष्ट का भागो बनाते हैं। किन्तु इसके विपरीत सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र, जिसमें दान, शील, सेवा, परोपकार आदि समस्त सद्गुण समाविष्ट होते हैं, ये आत्मा के लिए अमृत के समान हैं, जिन्हें ग्रहण कर लेने पर आत्मा सदा के लिए अजर-अमर हो जाती है। पर बन्धुओ, कवि के कथनानुसार अमृत को कौन ग्रहण कर सकता है ? इसका उत्तर 'तृण परिषह' के विषय में दी हुई गाथा के अनुसार तबस्सिणो यानी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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