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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
व्यक्तियों की सहायता और सेवा करने का जो बीड़ा आपने उठाया है वह सराहनीय है । परोपकार और सेवा का महत्त्व कम नहीं है। इसके द्वारा जीव तीर्थंकर पद की प्राप्ति भी कर सकता है। झुककर ही ऊँचा उठा जाता है
आप प्रायः स्कूलों में देखते हैं कि विद्यार्थी खेलते समय जब ऊपर की ओर उछलना चाहते हैं तब एक बार खूब झुकते हैं और फिर पूरी शक्ति लगाकर ऊपर की ओर उछलते हैं। इसी प्रकार आत्मा को उन्नत बनाने के लिए मनुष्य को झुकना चाहिए, तभी उसकी आत्मा ऊँची उठ सकती है।
यहाँ झुकने का अर्थ शरीर को नीचा झुकाने से ही नहीं है, अपितु अपने अहंकार, गर्व, अकड़ या बड़प्पन की भावना को झुकाने से है। जो व्यक्ति ऐसा करता है वही परोपकार और सेवा कर सकता है। देखने में सेवा साधारण मालूम देती है, किन्तु उसका फल ऊँचा मिलता है। पैर शरीर में सबसे नीचे रहते हैं और सिर अकड़ के कारण ऊपर । किन्तु नमस्कार पैरों को किया जाता है, सिर को नहीं। इसका कारण यही है कि पैर शरीर की सेवा करते हैं। स्वयं वे कंटकाकीर्ण, कंकरपत्थर तथा मिट्टी-कीचड़ आदि से भरे हुए मार्ग पर चलकर नाना प्रकार के कष्ट उठाते हैं पर शरीर पर एक खरोंच भी नहीं आने देते । इसीलिए लोग उन पर अपना मस्तक रखते हैं।
पैरों के इस उदाहरण से शिक्षा लेते हुए हमें भी सेवा के महत्त्व को समझना चाहिए तथा जितनी भी शक्य हो, जरूरतमन्दों की सेवा करने में हिचकिचाहट नहीं रखनी चाहिए। तभी हम अपनी आत्मा को कर्मों से हलकी बनाकर भवसागर तैरने में समर्थ बन सकेंगे और मानव-जन्म का सच्चा लाभ उठाकर इस लोक और परलोक में सुख प्राप्त करेंगे।
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