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अचेलक धर्म का मर्म
२१७ मुनि ने भी सहज एवं मधर शब्दों में उत्तर दिया-"महाराज ! मैं अनाथ था, इसलिए साध बन गया।"
- मुनि का यह उत्तर सुनकर तो श्रेणिक और भी चमत्कृत हो गये। विचार करने लगे कि ऐसा भव्य व्यक्तित्व जिस व्यक्ति का है, वह कैसे अनाथ हो गया ? फिर भी यह समझकर कि इनका कोई भी स्वजन-परिजन नहीं होगा। वैभव का अभाव होगा या अन्य किसी प्रकार का कष्ट रहा होगा इसीलिए दुखी होकर ये साधु बन गये है, उन्होंने कहा- "भगवन्, अगर आपका कोई नाथ नहीं है तो मैं आपका नाथ बनता हूँ और आप अपनी सुन्दर काया एवं अवस्था के अनुसार सांसारिक सुखोपभोगों का आनन्द उठाएँ ।”
पर श्रेणिक की बात सुनकर मुनि ने क्या उत्तर दिया ? उन्होंने स्पष्ट और सहज भाव से कह दिया
अप्पणा वि अणाहो सि, सेणिया मगहाहिवा । अप्पणा अणाहो सन्तो, कस्स नाहो भविस्ससि ॥
-उत्तराध्ययन सूत्र २०-१२ अर्थात्- "हे मगध देश के महाराज श्रेणिक ! तुम तो स्वयं ही अनाथ हो। फिर स्वयं अनाथ होते हुए दूसरों के नाथ कैसे बन सकते हो ?"
मुनि का यह उत्तर सुनते ही राजा श्रेणिक की आँखें तो मानो कपाल पर चढ़ गई । वे महान् आश्चर्य से बोले - "भगवन् ! आप कैसी बातें कह रहे हैं ? मैं मगध का सम्राट हूँ, प्रजा के लाखों व्यक्तियों का स्वामी हूँ, मेरा राज-कोष असीम है। हजारों हाथी, घोड़े, दास, दासी मेरे आश्रय में पल रहे हैं, साथ ही मेरे अन्तःपुर में अनेकों रानियाँ और स्वजन-परिजन हैं जो सदा मेरा मुह ताकते रहते हैं । भला मैं किस प्रकार अनाथ हूँ।"
मुनि मन्द-मन्द मुस्कराते हुए बोले- "राजन् ! अनाथ और सनाथ की परिभाषा मेरी दृष्टि में और है तथा आपकी दृष्टि में कुछ और। आपने अपने विचार इस विषय में व्यक्त कर दिये हैं पर मैं क्यों अपने आपको अनाथ कहता हूँ, यह सुनिए।" इस प्रकार अनाथी मुनि ने राजा से कहना प्रारम्भ किया
___ "मैं कौशाम्बी नगर के प्रभूत धनसंचय श्रेष्ठि का पुत्र हूँ। मेरे पिता के पास भी अपार ऋद्धि थी तथा परिवार में सभी सम्बन्धी थे। असीम वैभव के बीच मेरा लालन-पालन हुआ और युवावस्था आते ही सुन्दर कन्या से विवाह भी कर दिया गया।
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