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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
इहलोक सुखं हित्वा ये तपस्यन्ति दुधियः । हित्वा हस्तगतं ग्रासं ते लिहन्ति पदांगुलिम् ॥
आस्तिक व्यक्तियों का उपहास और तिरस्कार करते हुए नास्तिक व्यक्ति कहते हैं— जो मूर्ख व्यक्ति इस लोक के सुखों को छोड़कर घोर तपस्या करते हैं वे मानो अपने हाथ का कौर छोड़कर पैरों की अंगुलियाँ चाटते हैं ।
उनका आशय यही है कि प्राप्त सुखों का त्याग करके भविष्य के अनिश्चित सुखों की कामना करना महामूर्खता है और ऐसा करने का प्रयत्न करने से इस जीवन का आनन्द भी छूट जाता है और परलोक तो है ही कहाँ, जिसमें सुख मिलेगा ।
अब आते हैं तीसरी श्रेणी के व्यक्ति । ऐसे व्यक्ति लोक-परलोक, धर्म, अधर्म, पुण्य, पाप, देव, गुरु आदि सभी पर आस्था रखते हैं किन्तु प्रमाद के कारण और मन तथा इन्द्रियों के प्रबल आकर्षण से परास्त होकर धर्माचरण एवं तपादि का आराधन नहीं कर पाते । सम्यक् दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र पर पूर्ण विश्वास रखते हुए भी पूर्व कर्मों के उदय होने से वे चाहते हुए भी शुभोपयोग में नहीं लग पाते । प्रमाद का आवरण उनके मन, मस्तिष्क पर इस प्रकार छाया रहता है कि वे निष्क्रिय बने रहते हैं और आज नहीं तो कल और कल नहीं तो परसों से धर्माराधन प्रारम्भ करेंगे, यही विचार करते-करते वे अपना सम्पूर्ण जीवन व्यर्थ गँवा देते हैं । मैं तो समझता हूँ कि संसार में इस तीसरी श्रेणी के व्यक्ति ही अधिक हैं । आप सब जो यहाँ बैठे हैं, निश्चय ही नास्तिक नहीं हैं । आपकी प्रबल इच्छा सम्पूर्ण कर्मों को नष्ट करके मुक्ति प्राप्त करने की है, किन्तु सांसारिक उलझनों का और सांसारिक कर्तव्यों का बहाना लेकर आप केवल प्रमाद का ही पोषण करते हैं तथा विचार करते हैं कि ये सब सांसारिक कार्य निपट जायँ तो अवश्य धर्माचरण करेंगे ।
पर बन्धुओ, आप जानते हैं कि संसार के कार्य तो कभी भी सम्पन्न नहीं हो सकते । एक इच्छा के पूर्ण होते ही दस इच्छाएँ उसका स्थान ग्रहण कर लेती हैं तथा एक कार्य समाप्त करते ही दस कार्य सामने आ उपस्थित होते हैं । परिणाम यही होता है कि आत्म-कल्याण की पूर्ण चाह होते हुए भी आप जीवन पर्यन्त उस चाह के लिए सक्रिय नहीं बन पाते, अर्थात् उसके लिए प्रयत्न नहीं कर पाते । इस प्रकार आप तीसरी श्रेणी के व्यक्तियों में आ जाते हैं ।
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हमारा प्रसंग अनाथी मुनि एवं महाराज श्रेणिक को लेकर चल रहा है । अनाथ मुनि के समक्ष श्रेणिक आए और उन्होंने मुनि को वंदन किया । यद्यपि वे नास्तिक नहीं थे और स्वयं भी बड़े विचारक, उच्चमना एवं भव्यात्मा थे किन्तु अपने सामने तरुणावस्था के एक अत्यन्त तेजस्वी, कान्तिमान एवं कुलीन दिखाई देने वाले मुनि को देखकर कुछ चकित हुए और उन्होंने पूछ लिया- “ आपने इस अवस्था में, जबकि संसार के सुख भोगना चाहिए, संन्यास क्यों ग्रहण किया ?”
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