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शरीरं व्याधिमंदिरम्
धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो !
__ संवर तत्व के सत्तावन भेदों में से तेईस भेदों का वर्णन किया जा चुका है । अब चौबीसवें भेद का जो कि सोलहवाँ परिषह है, वर्णन किया जा रहा है। इस परिषह का नाम है—'रोग परिषह' ।
आप और हम सभी जानते हैं कि जहाँ शरीर है, वहाँ रोगों के आक्रमण का भी सदा भय है । साधु, श्रावक या अन्य कोई भी व्यक्ति क्यों न हो, वह कभी भी और किसी समय भी रोग से आक्रांत हो सकता है । रोगों से बचना किसी भी शरीरधारी के लिए संभव नहीं है। भले ही व्यक्ति एकदेशीय व्रतधारी श्रावक हो या सर्वदेशीय महाव्रत धारी मुनि, पूर्वकृत कर्मों का परिणाम तो उसे भोगना ही पड़ता है और वे अनेक रूपों में उसके समक्ष आते हैं। कभी व्यक्ति को धन की हानि होती है, कभी स्वजनों का वियोग होता है, कभी किसी शत्रु का सामना करना पड़ता है और कभी रोगों का।
साधारणतया यही देखा जाता है कि व्यक्ति रोगाक्रांत होने पर चीखता है, चिल्लाता है, रोता है और इसके साथ-साथ भगवान को कोसता जाता है। सारांश यही है कि वह बीमारी के समय निरन्तर आर्तध्यान करता रहता है । परिणाम यह होता है कि पूर्व कर्मों से तो उसे छुटकारा मिल नहीं पाता, उलटे अनेक नवीन कर्म बँध जाते हैं।
किन्तु मुनि तो अपने पूर्व कर्मों की निर्जरा करने के लिए और नवीन कर्मों का आगमन रोकने के लिए संयम ग्रहण करता है अतः उसे रोगादि परिषहों के उपस्थित होने पर विचलित नहीं होना चाहिए अपितु समभाव एवं शांति से उन्हें सहन करना चाहिए। श्री उत्तराध्ययन सूत्र के दूसरे अध्ययन की बत्तीसवीं गाथा में कहा गया है
नच्चा उप्पइयं दुक्खं, वेयणाए दुहट्ठिए । अदीणो थामए पन्नं, पुट्ठो तत्थऽहियासए ।
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