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________________ अलाभो तं न तज्जए सन्तोषी व्यक्ति धन कमाने की अनेक झंझटों से तथा पापों से बच जाता है और जब अधिक धन इकट्ठा नहीं करता तो व्यर्थ के व्यय से भी बचता है। दूसरे उसके जीवन में सादगी और संयम आ जाता है अत: वह परम शान्ति का अनुभव करता है। एक श्लोक में कहा भी है सन्तोषामृततृप्तानां, यत्सुखं शान्तचेतसाम् । कुतस्तद्धनलुब्धाना-मितश्चेतश्च धावताम् ॥ अर्थात-सन्तोषरूपी अमत को पाकर जो तप्त हो गये हैं और इस कारण जिनका चित्त शान्त हो गया है, उन्हें जिस सुख का अनुभव होता है, वह सुख धन के लोभ में पड़कर इधर-उधर दौड़-धूप मचाने वालों के भाग्य में कहाँ ? ___कहने का अभिप्राय यही है कि सुख संतोष रखने में है। 'अलाभ परिषह' भी साधक को संतोष धारण करने की प्रेरणा देता है। भिक्षाचरी के लिए जाने पर साधु को अगर संयोग न मिले तो भी वह संतोष रखे तथा अगले दिन मिल जाएगा, ऐसा विचार करे । जो साधक ऐसा सोच लेता है उसे 'अलाभ परिषह' तकलीफ नहीं देता । संतोष धारण करने से ही आत्मा का कल्याण होता है । इस संसार में मनुष्य को अनेक प्रकार के कष्टों और परिषहों का सामना करना पड़ता है। किन्तु जो व्यक्ति साधारण होते हैं वे रो-रोकर उन्हें भोगते हैं और जो असाधारण अर्थात् महान् होते हैं वे हंसते हुए उन पर विजय प्राप्त करते हैं। किसी हिन्दी भाषा के कवि ने कहा है ये दुनिया एक उलझन है, कहीं धोखा कहीं ठोकर । कोई हंस-हंस के जीता है, कोई जीता है रो-रोकर । जो गिरकर भी सम्हल जाये, उसे इन्सान कहते हैं। किसी के काम जो आये, उसे इन्सान कहते हैं। पराया दर्द अपनाये उसे इन्सान कहते हैं । कवि ने कहा है-यह संसार एक उलझन है । और इसमें व्यक्ति कहीं धोखा खाता है तथा कहीं पर ठोकर खाकर गिर पड़ता है। अर्थात् नाना प्रकार के कष्ट उसके सामने आते हैं । कभी वह धनाभाव के कारण रोता है तो कभी उसका धन कोई चुरा ले जाता है । कभी बालक के जन्म पर हँसता है, किन्तु उसी की मृत्यु हो जाने पर रोता है । कभी भार्या, कुभार्या साबित होती है और कभी पुत्र अपमानित करता है । इसके अलावा कभी-कभी मनुष्य स्वयं भी पतन के मार्ग पर अग्रसर होकर अपनी आत्मा को गिरा लेता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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