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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
है - सत्य ही मानव के लिए शरण लेने का स्थान है और प्रत्येक व्यक्ति को उसकी शरण लेनी चाहिए ।
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आगे कहते हैं - 'लोहो दुहम् ।' लोभ जैसा कोई दुःख नहीं है । इस संसार में मनुष्य लोभ के कारण नाना पाप करता है । इस महा - कषाय का वर्णन करते हुए हमारे शास्त्र कहते हैं कि संसारी प्राणी जब लोभ के वश में हो जाते हैं तो दिन-रात उन्हें तृष्णा सताती रहती है । उनकी इच्छायें और कामनायें कभी पूरी नहीं होतीं और जब इच्छाओं का अन्त नहीं आता तो तृप्ति की सम्भावना भी नहीं होती ।
वास्तव में लोभ अग्नि के समान है, जिसमें ज्यों-ज्यों ईधन डाला जाय वह भड़कती चली जाती है । लोभ को शान्त करने के लिए मनुष्य हीरे, मोती, माणिक, सोना, चांदी, धन-धान्य, मकान एवं जमीन आदि जुटाता जाता है किन्तु लोभ की ज्वालाएँ उन्हें पाकर और और बढ़ती हैं । परिणाम यह होता है कि प्राणी को इस जीवन में तृष्णा की आग में जलना पड़ता है और भारी परिग्रह को जुटाने में जो पाप करने पड़ते हैं, उनके कारण जन्म-जन्मान्तर तक संसार भ्रमण करना होता है ।
भगवद्गीता में कहा है
नरकस्येदं द्वारं
नाशनमात्मनः ।
त्रिविधं कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतन्त्त्रयंत्यजेत् ॥
अर्थात् — नरक के तीन द्वार हैं जो आत्मा का विनाश करते हैं । वे हैं - काम, क्रोध और लोभ । अतएव इन तीनों का त्याग करना चाहिए ।
वस्तुतः लोभ महा दुःखदायी है और इसे त्यागे बिना मानव कभी सुख या शान्ति महसूस नहीं कर सकता ।
लोभ को दुःख बताने के बाद आगे यह भी बताया है कि फिर सुख क्या है ? इस विषय में कहा है – 'सुहमाह तुट्ठी ।' सन्तोष के समान सुख नहीं है ।
वास्तव में ही मनुष्य की तृष्णा कभी शान्त नहीं होती और वह कितना भी संग्रह क्यों न करता जाय, सदा अतृप्त और दुखी रहता है । आज मनुष्य की हवस इतनी बढ़ गयी है कि उसका कहीं किनारा ही दृष्टिगोचर नहीं होता। एक आवश्यकता वह पूरी करता है कि उसकी जगह पाँच आवश्यकतायें नई उत्पन्न हो जाती हैं । इसलिए व्यक्ति को चाहिए कि वह अपनी स्थिति में सदा सन्तुष्ट रहे । ऐसा करने पर आध्यात्मिक लाभ तो होगा ही, साथ ही सांसारिक दृष्टि से भी वह लाभ में रहेगा ।
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