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आनन्द प्रवचन | छठा भाग सेठ घर गया और अगले दिन अपने पुत्र से बोला
"बेटा ! यहाँ पर बड़े विद्वान एवं त्यागी संत आये हुए हैं। तुम मेरे साथ चलकर उनके दर्शन तो करो।"
पुत्र यह सुनकर भड़क गया और बोला-"पिताजी ! मैं उनके पास नहीं जाऊँगा । साधु लोग यह छोड़ो, वह छोड़ो के सिवाय कोई बात ही नहीं करते।"
सेठ ने उसे समझाया-"पुत्र ! मैंने महाराज से पहले ही कह दिया है कि आप मेरे लड़के को कुछ भी त्याग करने के लिए मत कहियेगा। उन्होंने यह बात स्वीकार भी कर ली है। अतः कम से कम एक बार ही मेरे आग्रह को मान कर उनके पास चलो।"
पुत्र ने सोचा-पिताजी इतना आग्रह कर रहे हैं, और जब सन्त मुझसे कोई त्याग करने के लिए नहीं कहेंगे तो एक बार चलने में आखिर मेरा क्या बिगड़ जायेगा ? यह विचार कर वह पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए सन्त के निवास स्थान पर आ गया।
पिता-पुत्र ने सन्त के दर्शन किये और उन्होंने बैठने के लिए कहा। पर सेठ के लड़के ने कह दिया- "आप मुझे किसी बात का त्याग करने के लिए न कहें तो बैठ सकता हूँ, अन्यथा इसी क्षण चला जाऊँगा।"
सन्त मधुरता पूर्वक हँसे और बोले-"वत्स ! मैं तुम्हें कुछ भी छोड़ने के लिए नहीं कहूँगा, पर अगर कुछ ग्रहण करने के लिए कहूँ तो स्वीकार करोगे ?"
"बिना आपकी बात सुने कि आप मुझे क्या ग्रहण करने के लिए कहते हैं, मैं कैसे हां कह सकता हूँ ?" पुत्र ने उत्तर दिया।
"हाँ यह भी ठीक है। तो मैं केवल यह कहता हूँ कि तुम सत्य बोलना स्वीकार कर लो। इसके अलावा और जो कुछ भी करना चाहो, करते रहो।"
पुत्र सन्त की बात पर कुछ देर तक विचार करता रहा । उसने सोचा"महाराज की बात मानने से मेरे किसी काम में बाधा तो आयेगी नहीं। ये न तो मुझे जुआ खेलने से मना करते हैं, न शराब पीने से और न ही वेश्यागमन से रोकते हैं । फिर सच बोलने मात्र का नियम लेने से मेरा क्या बिगड़ता है ? यह सोचकर वह बोला-"ठीक है महाराज ! सत्य बोलने का एक नियम करवा दीजिए।"
सन्त ने प्रसन्नतापूर्वक उसे सत्य बोलने का नियम दिला दिया। कुछ समय पश्चात् पुत्र उठकर चला गया। शाम को उसने खाना खाया और जब शराब की याद आई तो घर से बाहर जाने लगा। संयोगवश उसी समय उसकी दुकान के वृद्ध
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