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सबके संग डोलत काल बली
की अनित्यता एवं धन की निस्सारता को भलीभाँति समझ लिया। परिणामस्वरूप अपना सारा धन उन्होंने गरीबों को दान कर दिया तथा कम से कम पैसे में गुजरबसर करते हुए लोगों की सेवा में दिन गुजारने लगे।
__ वस्तुतः इस लोक से जीव के साथ एक कौड़ी भी नहीं जाती। साथ में जाता है तो केवल पुण्य और पाप । इसलिए सांसारिक वस्तुओं में आसक्ति रखना महान् मूर्खता है । और तो और, संसार की वस्तुएँ तो इस लोक में भी मनुष्य का साथ नहीं देतीं। पंचतंत्र में एक श्लोक दिया गया है
अभ्रच्छाया खलप्रीतिः सिद्धमन्नं च योषितः ।
किंचित् कालोपभोग्यानि, यौवनानि धनानि च ॥ बादल की छाया, दुष्टों की प्रीति, पका हुआ अन्न, स्त्री, धन एवं यौवन-ये छः चीजें अल्पकाल तक ही उपयोग में आने योग्य हैं, अर्थात् अस्थिर हैं ।
इसलिए बन्धुओ, महा मुश्किल से मिले हुए इस मानव जन्म को हमें संसार के नाशवान एवं अस्थिर पदार्थों को भोगने में तथा उनके लिए नाना प्रकार के पापकर्मों को करने में ही नहीं गँवाना चाहिये । तारीफ की बात तो यह है कि आज व्यक्ति सांसारिक कार्यों को करने में तो सदा तत्पर रहता है, किन्तु आत्मिक अर्थात् आत्मा को लाभ पहुंचाने वाले कार्यों को करने में प्रमाद करता है और उसकी यह प्रमाद-निद्रा कभी भी समाप्त नहीं होती, चाहे जीवन समाप्त हो जाता है । पर ऐसा करने से उसे जीवन का क्या लाभ प्राप्त हो सकता है ? कुछ भी नहीं । उसके लिए यह जीवन मिला न मिला समान ही रहता है । कहा भी है
स्वर्णस्थाले क्षिपति स रजः पाद शौचं विधत्ते, पीयूषेण प्रवरकरिणं वाहयत्यैन्ध भारम् । चिन्तारत्नं विकिरति कराद् वायसोड्डायनार्थ, यो दुष्प्राप्यं गमयति मुधा मर्त्यजन्ममत्तः ॥
-सिन्दूर प्रकरण ५ कहा है-जो व्यक्ति प्रमाद के वश में रहकर मनुष्य जीवन को व्यर्थ गँवा रहा है, वह अज्ञानी मनुष्य मानों सोने के थाल में मिट्टी भर रहा है, अमृत से पैर धो रहा है, उत्तम हाथी पर ईंधन ढो रहा है या चिन्तामणि रत्न को कौए उड़ाने के लिए फैंक रहा है।
इसलिए प्रत्येक मुमुक्षु को जीवन का महत्व समझना चाहिये तथा मोह-निद्रा से जाग्रत हो जाना चाहिये । जब तक व्यक्ति प्रमाद अथवा मोह की नींद में सोया
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