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________________ ३१२ आनन्द प्रवचन | पांचवां भाग के प्रयत्न और महत्त्व होता है आत्मा को शुद्धता धर्माराधन के लिए व्यक्ति के हृदय में इसे सुनने वाले भी अपने जीवन के महत्त्व को समझें और अपनी की ओर ले जाने का प्रयत्न करें। आत्म शुद्धि कोई उम्र या कोई समय निश्चित नहीं होता । विचारों के बदलने का। जिस दिन मानव यह समझ ले कि जीवन और शरीर क्षणिक हैं तथा हमें इसके द्वारा अधिक से अधिक लाभ उठाना है, उसी दिन से वह आत्मम-शुद्धि के मार्ग पर चल सकता है । के अन्तगढ़ सूत्र में आपने पहले सुना होगा और अब भी ऐवन्ता कुमार विषय में सुनेंगे कि उन्होंने कितनी अल्पवय में साधना के मार्ग को ग्रहण कर लिया था । उन्होंने उस समय शास्त्रों का अध्ययन किया था न धर्मोपदेश सुने थे और न ही सन्तों की संगति में ही रहे थे । केवल एक दिन गौतम स्वामी के दर्शन किये थे तो उन्हें अपने घर पर आहार के लिए बाल-स्वभाव के अनुसार अंगुली पकड़ कर ले गये और जब गौतम स्वामी लौटकर भगवान महावीर के स्थान पर पधारने लगे तो उनकी अंगुली पकड़े - पकड़े ही भगवान के दर्शनार्थ साथ-साथ चल दिये । पर आठ वर्ष के बालक ही तो थे वे । इधर गौतम स्वामी हाथ में आहार की झोली थी और सन्त-स्वभाव अनुसार उन्हें धीर गति से चलना था । अतः यह कहकर कि - "आप तो बहुत धीरे चल रहे, मैं जल्दी से जाता हूँ ।" कहते हुए वे उनकी अंगुली छोड़कर भाग खड़े हुए और सीधे भगवान के समीप जा पहुँचे । बस इतना ही उनका सत्संग था और इसी के प्रभाव से वे दीक्षित हो गये । सन्तों की चर्या और नियमों के विषय में भी कहाँ उन्हें पूरा ज्ञान था ? और इसी लिये वर्षाकाल में जब वे सन्त मण्डली के साथ एक दिन प्रातःकाल के समय जंगल के लिए गये तो रात्रि को पानी बरसने से उन्होंने इधर-उधर बहते पानी को देखा तो वहीं बैठ गये । वह किसलिये ? - बहतो पाणी रोक ने सरे, करण रा क्रीड़ा मेली पाणी में पातरी बोल्या Jain Education International भाव । म्हारी तिरे छे नाव हो अथवन्ता मुनिवर, नाव तिरायी बहता नीर में । कवि ने राजस्थानी भाषा में ऐवन्ता मुनि की कथा लिखते हुए बताया है कि ज्योंही आठ वर्ष के उन बाल-मुनि ने मार्ग पर बहता हुआ पानी देखा तो वहीं बैठ गये और जल्दी-जल्दी गीली मिट्टी की पाल बाँधकर पानी एक जगह रोका तथा उसमें अपनी छोटी सी पातरी यानी काष्ट का पात्र डाल दिया और काष्ट का होने For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004008
Book TitleAnand Pravachan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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