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मिलें कब ऐसे गुरु ज्ञानी ?
२६९ दिग्विजयी पण्डित आनन्द और गर्व से झूमते हुए वहाँ से लौटे । मार्ग में ही जीव गोस्वामी मिल गये ।
विद्वान ने जीव गोस्वामी से भी कहा-' आपके ताऊजी सनातन गोस्वामी ने तो बिना शास्त्रार्थ किये ही मुझे विजय पत्र लिख दिया है। आप इसी पर हस्ताक्षर करेंगे या शास्त्रार्थ करेंगे ?"
___ जीव गोस्वामी युवक थे और प्रकाण्ड पण्डित भी। दिग्विजयी ब्राह्मण का अपने ताऊजी के प्रति तिरस्कार का भाव देखकर उनसे रहा नहीं गया और वे बोले-"मैं शास्त्रार्थ करने को तैयार हूँ।"
दोनों में शास्त्रार्थ प्रारम्भ हो गया पर जीव गोस्वामी के समक्ष दिग्विजयी ब्राह्मण ठहर नहीं पाए और उन्होंने दो-चार प्रश्नों के बाद ही हथियार डाल दिये । अत्यन्त दुखी होकर उन्होंने विजय पत्र फाड़ दिया और मुह लटकाये वहाँ से रवाना हो गए।
इसके बाद जीव गोस्वामी अपने ताऊजी के पास पहुंचे और अपनी विजय तथा दिग्विजयी ब्राह्मण की पराजय के विषय में बताया । पर आश्चर्य की बात हुई कि सनातन गोस्वामी प्रसन्न होने की बजाय क्रोधित हो गये और अपने भतीजे जीव गोस्वामी से बोले
‘जीव ! तुम तुरन्त यहाँ से चले जाओ। मैं तुम्हारा मुंह भी देखना नहीं चाहता । एक ब्राह्मण को अपमानित और दुखी करके तुम्हें क्या मिला ? यश ? क्या करोगे इस यश का ? यह केवल तुम्हारे अहंकार को ही तो बढ़ाएगा और तुम्हारे जैसा अहंकारी भगवान का भजन कैसे कर सकेगा ? आखिर उस ब्राह्मण को विजयी मान लेने में तुम्हारा क्या बिगड़ता था ?"
बेचारे जीव गोस्वामी अपनी भूल समझ गये और उन्होंने अपने अहंकार एवं यश-प्राप्ति की कामना के लिए पश्चाताप करते हुए अपने ताऊजी से क्षमा माँगी।
तो बन्धुओ, ऐसे यश और अपयश की परवाह न करने वाले निरहंकारी और नम्र हृदय के महापुरुष ही सच्चे सन्त कहला सकते हैं। कवि भी अपने भजन में यही कह रहा है कि यश, अपयश, जीवन-मरण और सुख-दुख को समान समझने वाले गुरु मुझे कब मिलेंगे ?
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