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आनन्द प्रवचन | पांचवा भाग
लेकिन मन में विचार करता गया अध्ययन करो, जबकि मैं गीता
ब्राह्मण राजा की बात सुनकर चला गया, कि राजा मूर्ख है अतः कहता है कि गीता का पूर्ण को अच्छी तरह से उसे समझा सकता हूँ । पर राजा ने कह दिया था अतः फिर कई बार गीता को पढ़ा और कुछ दिन बाद पुनः राजा के पास अपने पूर्व उद्देश्य
को दोहराया ।
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पर आश्चर्य कि राजा ने फिर कह दिया- "पंडित जी, आप अभी और गीता को अच्छी तरह पढ़िये ।"
ब्राह्मण को राजा की बात सुनकर आश्चर्य तो हुआ पर क्रोध नहीं आया । उसने सोचा कि राजा के इस कथन में गूढ़ रहस्य होना चाहिये । वह घर आ गया और बड़ी तन्मयता से पुनः पुनः गीता को पढ़ने लगा ।
धीरे-धीरे उसे समझ में आ गया कि धन-दौलत एवं मान-प्रतिष्ठा आदि के लिये दरबार में जाना निस्सार है। गीता पढ़ने का सार यही है कि अधिक से अधिक आत्म-चिन्तन किया जाय ।
जब ब्राह्मण की समझ में यह बात आ गई तो वह दिन-रात दत्तचित्त होकर ईश्वर की आराधना और आत्म-चिंतन करने लगा । राजा के पास गया ही नहीं ।
कुछ वर्षों बाद राजा को ब्राह्मण का स्मरण हुआ और वह उसकी खोज करता हुआ ब्राह्मण के घर जा पहुँचा । वहाँ पर आंतरिक ज्ञान एवं अखंड श्रद्धा के कारण उत्पन्न हुए ब्राह्मण के दिव्य तेज को देखकर राजा ब्राह्मण के चरणों पर गिर पड़ा और बोला - "गुरुदेव ! अब आपने गीता का सार समझ लिया है अतः मुझे अपना शिष्य बनाकर कृतार्थ कीजिये ।"
बन्धुओ, आप भी समझ गए होंगे कि वास्तव में धर्म का सार क्या है और उसे किस प्रकार ग्रहण किया जा सकता है। सच्चे संत भी उसी प्रकार संसार में जो असार है उसे छोड़कर सार को ग्रहण करते हैं तथा आत्म-चिंतन करते हुए मन के समस्त विकारों को एवं आसक्ति तथा परिग्रहादि को छोड़कर आध्यात्मिक दृष्टि से अकेले विचरण करते हैं । ग्रामानुग्राम भ्रमण करते हुए वे किसी भी परिषह से घबराते नहीं हैं तथा धर्म के प्रचार का उद्द ेश्य लिये हुए आर्य एवं अनार्य प्रदेशों को समान समझते हुए यथाशक्य विचरते हैं ।
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