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चिन्ताको चित्त से हटाओ
धर्म प्रेमी बंधुओ, माताओं एवं बहनो !
श्री उत्तराध्ययन सूत्र के दूसरे अध्ययन में बाईस परिषहों के विषय में बताया गया है । जिसमें से कल 'अचेल परिषद्' के विषय में वर्णन किया गया था, और आज 'अरति - परिषह' के बारे में कहा जाएगा। यह आठवां परिषह है ।
अरति का अर्थ है चिन्ता । इस चिन्ता को यानी अरति परिषह' को जीतना 'बड़ा कठिन कार्य हैं और बिरले महापुरुष ही इस पर विजय प्राप्त कर सकते हैं । जब तक मन में चिन्ता बनी रहती है, व्यक्ति से आत्म-सुख के लिये कुछ नहीं किया जा सकता । न वह धर्माराधन में चित्त को एकाग्र कर सकता है और न ही त्याग तपस्या आदि में सफल हो सकता है ।
इसलिये भगवान महावीर ने फरमाया कि साधु को चिन्ता का सर्वथा त्याग करना चाहिये तथा किसी भी परिस्थिति में मन को डांवाडोल होने देना नहीं चाहिये । अगर मन में किसी भी प्रकार से आर्त-ध्यान या अरति बनी रहेगी तो साधु अपने साधना - मार्ग पर निश्चित होकर कभी नहीं बढ़ सकेगा ।
इस विषय को स्पष्ट करने के लिये गाथा इस प्रकार है:गामानुगामं रीयंतं, अणगारं अरई अणुष्पवेसेज्जा, तं तितिक्खे
अकचणं 1 परीसहं ||
- उत्तराध्ययन सूत्र. अ. २ ग० १४
अर्थात् ग्रामानुग्राम में विचरण करते हुए साधु को यदि कोई चिन्ता उत्पन्न हो जाय तो वह उस चिन्ता जन्य परिषह को समता पूर्वक सहन करे ।
वस्तुतः सच्चा साधु वही है जो 'अनगार' यानी 'आगार' रहित है । जिसके
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