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________________ जीवन श्रेष्ठ कैसे बने ? ३२७ बढ़ती चली जाती है । अतः हृदय में सतत जलनेवाली इस लोभ-रूपी अग्नि को धन-वैभव से शांत करने का प्रयत्न करना निरर्थक ही नहीं वरन विपरीत कार्य है । इसीलिए विवेकी पुरुष ऐसे मूर्खतापूर्ण प्रयास नहीं करते अर्थात् वैरभाव को शांत करने के लिए धन का नहीं वरन् सन्तोषवृत्ति का प्रयोग करते हैं । किसी कवि ने लोभी मनुष्य को समझाने की कोशिश करते हुए अपने एक पद्य में बड़ी सुन्दर शिक्षा दी है जो कुछ विधाता तेरे लिख्यो लिलाट पाट, ताही पर अपनो आप अमल कर ले । सोने को सुमेर भावे देख वार पार माँझ, घटै बढ़े नहीं यह निश्चय जिय भर ले ॥ देवीदास कहे जोई होनहार सोई होइ है, मन में विचार रंन दिन अनुसर ले । वापी कूप सरिता भरे हैं सात सागर में, तू तो तेरे वासन- समान पानी देवीदास जी कहते हैं - अरे मानव । विधाता ने लिखा है वही होने वाला है अतः तू जो प्रयास करता है, भी फल प्राप्त होता है, उतने में ही संतोष रख । भले ही किसी व्यक्ति के समक्ष सुमेरु पर्वत जितना बड़ा सोने का ढेर क्यों न हो, उसे उतना ही प्राप्त हो सकेगा जितना उसकी तकदीर में होगा । उससे न कम होगा और न अधिक मिल सकेगा । इस बात को निश्चय समझना चाहिये । भर ले ॥ तेरे ललाट में जो कुछ अरे उसका जो कुछ कवि का कथन है- " अरे भाई ! जो होनहार है, वही होगा, इस बात को कभी मत भूल तथा इस बात के अनुसार रात-दिन सजग रहकर संतोष पूर्वक मिले हुए पर ही प्रसन्नता का अनुभव करता हुआ कुछ आत्म-कल्याण के लिये प्रयत्न करता रह । इस संसार में ज्ञान का अगाध भंडार है । अनेक शास्त्र, धर्मग्रन्थ, गुरु, तथा महापुरुष अपने में विशाल ज्ञान लिये हुए हैं । अत: तुझसे जितना ज्ञान हासिल किया जा सके करले । जिस प्रकार कुए, बावड़ी, नदी, तालाब और समुद्रों में अथाह पानी होता है, किन्तु मनुष्य उसमें से उतना ही ले सकता है, जितना बड़ा उसके पास पात्र होता है । तो अधिक की लालसा न रखकर व्यक्ति को अपने पास के बर्तन को भर कर संतुष्ट हो जाना चाहिये, उसी प्रकार जितनी अपनी बुद्धि और योग्यता हो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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