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________________ ३२६ आनन्द प्रवचन भाग-४ बुरा कर लेंगे किन्तु भविष्य में जब कर्म-फल भोगने का समय आएगा तब यह चातुरी नहीं चल सकेगी । कहा भी है"भुवनं वञ्चयमाना, वंचयन्ति स्वमेवहि ।" - उपदेशप्रासाद जगत को ठगते हुए कपटी पुरुष वास्तव में अपने आपको ही ठगते हैं। ऐसा क्यों कहा गया है ? इसलिए कि "माया तैर्यग्योनस्य' माया करने से तिर्यंच योनि प्राप्त होती है। जिस प्रकार माया टेढ़ेपन से अपना कार्य करती है उसी प्रकार माया के कारण प्राप्त तिर्यंच प्राणी टेढ़े-तिरछे चलते हैं। इस प्रकार माया आत्मा को पतित बनाकर दुर्गति में डाल देती है। ___ माया के पश्चात् चौथा कषाय लोभ आता है। इसके लिए भी बताई हुई गाथा में कहा गया है--'लोहो सव्व विणासणो।' अर्थात् लोभ तो मनुष्य के सर्वस्व का विनाश कर देता है। लोभ कषाय का वर्णन करते हुए शास्त्र कहते हैं कि संसारी प्राणी इतने असन्तोष शील हैं कि किसी भी अवस्था में उनकी इच्छाएँ, तृष्णाएँ और कामनाएं पूरी नहीं हो सकतीं । वस्तुतः जब तक लोभ विद्यमान रहता है, तब तक इच्छाओं का अन्त नहीं आता और जब उनका अन्त नहीं आता तब तक उनकी तृप्ति सम्भव भी कैसे हो सकती है ? भर्तृहरि ने अपने श्लोक में लोभी मनुष्य के मन की दशा का वर्णन करते हुए कहा है भ्रान्तं देशमनेकदुर्गविषमं प्राप्तं न किञ्चित्फलम् । त्यक्त्वा जातिकुलाभिमान उचितं सेवा कृता निष्फला ॥ भुक्त मानविजितं परगृहेष्वाशंकया काकवत् । तृष्णे दुर्मति ! पापकर्म निरते नाद्यापि संतुष्यति ॥ तृष्णा के मारे हुए एक व्यक्ति का कथन है-मैं अनेक दुर्गम और कठिन स्थानों में घूमता फिरा, पर कुछ भी फल नहीं निकला। मैंने अपनी जाति और अपने कुल के अभिमान का त्याग कर पराई चाकरी भी की; पर उससे भी कुछ न मिला। शेष में मैं कौए की तरह उड़ता हुआ और अपमान सहता हुआ, पराये घरों के टुकड़े भी खाता फिरा । हे पाप-कर्म कराने वाली और कुमति दायिनी तृष्णे ! क्या तुझे इतने पर भी सन्तोष नहीं हुआ ? ___ कहने का अभिप्राय यही है कि तृष्णा वास्तव में एक अग्नि के समान है। अग्नि में ज्यों-ज्यों ईंधन डाला जाता है, त्यों-त्यों वह शांत होने के बजाय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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