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शुभ फलप्रदायिनी सेवा
धर्मप्रेमी बंधुओ, माताओ एवं बहनो !
कल के प्रवचन में बताया गया था कि जिज्ञासु व्यक्ति भगवान से प्रार्थना करता है - "हे प्रभो ! आपने कर्मों से सर्वथा रहित होकर शाश्वत सुख की प्राप्ति कर ली है । अपनी श्रेष्ठता एवं महानता के कारण आपकी आत्मा परमात्म पद को प्राप्त कर चुकी है। किन्तु मैं पुद्गलों से ठगाया गया और कर्मों से सताया हुआ एक दुखी प्राणी हूँ । आपसे मेरी प्रार्थना है कि आप मुझे ऐसी आत्म-शक्ति प्राप्त करने का वरदान दें कि मैं भी इन कर्मों का मुकाबला कर सकूँ और इनसे पीछा छुड़ा सकूं । आपके वचनानुसार मैंने जाना है कि कर्म का मार्ग कल्याण-कारी है और कर्म में ही वह शक्ति है जो आत्मा को शुद्ध और कर्मों से मुक्त कर सके । इसलिये मैंने भी धर्म रूपी सुभट की शरण ली है तथा इसे अपनी रक्षा का भार सोंपा है ।"
यह प्रार्थना केवल एक प्राणी के लिये ही नहीं है । इस संसार में प्रत्येक प्राणी कर्मों के वश में होकर संसार भ्रमण कर रहा है । अतः अगर उसे इस संसार के बंधनों से छुटकारा पाना है तो यही प्रार्थना करनी चाहिये । उसे भी अपने मन में यही भावना रखनी चाहिये कि मैं अपनी आत्मा में रहे हुए अनंतज्ञान, अनंतदर्शन और अनंतचारित्र को प्रकट करके इन कर्मों से मुक्ति प्राप्त करूँ ।
किसी भी आत्मा के लिये यह कार्य कठिन भले ही हो पर असम्भव कदापि नहीं है । आत्मा सभी की समान रही है और समान ही है । तीर्थकरों की आत्मा में जो शक्ति थी वही शक्ति संसार के प्रत्येक प्राणी की आत्मा में है चाहे वह मनुष्य हो, चाहे पशु । चाहे हाथी हो और भले ही चींटी या उससे भी सूक्ष्म प्राणी क्यों न हो । आत्म-शक्ति प्रत्येक प्राणी की आत्मा में है; केवल प्रगट होने की कमी है ।
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