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________________ २६२ - आनन्द-प्रवचन भाग -४ श्री त्रिलोकऋषि जी महाराज की दूसरी कृति हैं 'शीलरथ ।' शीलरूपी रथ में उन्होंने लिखा है-प्रतिक्रमण में ब्रह्मचर्य का पालन करना है । जो १८००० गाथा हैं, उनकी पूरी विभागणी करके उन्होंने बताया है। इसमें एक ही गाथा से १८००० गाथाएं निकलती हैं और वह गाथा यहाँ दी हुई है। आज के समय में तो बहुत से उपयुक्त साधन होते हैं लेकिन यह लिखा गया है सं० १९३८ में । अर्थात् नब्बे साल पुराना है । आज जो सामग्री मिलती है वह नब्बे साल पहले उपलब्ध नहीं थी। फिर भी ऐसा चित्र बनाना साधारण बात नहीं है। महाराज श्री की तीसरी कृति है-'चित्रालंकार काव्य।' इसे देखकर तो हमारी बहनें कहेंगी- 'कितना सुन्दर कसीदा निकाला गया है। इसे सीधी रीति से पढ़ा जाय तो कुल छत्तीस दोहे हैं। प्रथम दोहा मंगलकारक है। उसके पश्चात् चौबीसों तीर्थकरों की स्तुति में चौबीस दोहे हैं। तत्पश्चात् आचार्य, साधु आदि पाँच पदों के पांच दोहे, फिर ज्ञान, दर्शन, चारित्र इस रत्नत्रय पर तीन दोहे और सबसे अन्त में तीन दोहे हैं-देव, ऋषि और धन पर । इस प्रकार छत्तीस दोहे सीधे पढ़ने पर हैं। चित्र में अगर गोमूत्रिका बंध से पढ़ना प्रारम्भ करें तो नीले में नमोहिरिकारयं और लाल अक्षरों में मंगलाचरण दिया है। चित्रालंकार बनाते समय उन्होंने उसके साथ ही मंगलाचरण बनने के शब्दों की रचना दोहे में उस विशेष स्थान पर की है। अन्त में उन्होंने दोहे में चालष्ण नमोकार मंत्र दिया है । बची हुई जगह पर पीले रंग में उत्तराध्ययन सूत्र के बीसवें अध्ययन की पहली गाथा सिद्ध और साधु के बारे में लिखी गई है। सिद्ध अरिहंत हैं और आचार्य साधु हैं । बीच में जो चोकड़ी है उसमें लाल रंग की जो जगह है वहाँ 'तुभ्यंनमस्त्रिभुवनातिहराय नाथ' यह श्लोक जो हम प्रतिदिन बोला करते हैं, बताया गया है। जो सीधे दोहे में अक्षर गाथा है। बीच में जो छोटी सी जगह है वहाँ 'ओम नमो सिद्धम्' यह लिखकर काव्य समाप्त कर दिया गया है । चित्र में छतरी के आकार का छत्रबंध भी बना हुआ है।। सौ वर्ष से ऊपर हो गए हैं इसे बनाए हुए। महाराज श्री ने कहा हैकेवली भगवान की वाणी निश्चित रूप से प्रमाणस्वरूप है और यह काव्य ऋषिपंचमी-संवत्सरी को बनाया है अन्त में त्रिलोक ऋषि जी महाराज कहते हैं-जो चित्रालंकार काव्य मैंने बनाया है। अपनी शक्ति से नहीं । अपितु गुरु म० की कृपा से बना है। छंद भी बनाया, परिस्थिति भी बताई और गुरु महाराज का स्मरण भी किया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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