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________________ पूज्यपाद श्री त्रिलोकऋषिजी २६१ आपने ज्ञान कुजर के नाम से एक अत्यन्त सुन्दर कलाकृति का निर्माण किया है। ज्ञान कुजर यानी ज्ञान रूपी हाथी। आप सोचेंगे, कैसा है वह हाथी ? चित्र के रूप में नहीं वरन अक्षरों से बनाया गया है । अगर आप देखना चाहें तो "ज्ञान कुंजर दीपिका" में उसे देख और पढ़ भी सकते हैं। ____ ज्ञान-कुजर में पांच महाव्रतों की सीढ़ियाँ बनाई गई हैं । सूढ़ हाथी का सबसे महत्वपूर्ण अंग है और सबसे आगे है अतः उसमें ज्ञान और धर्म को चलाने वाले चौबीसों तीर्थंकरों के नाम हैं। सबसे अंत में भगवान महावीर हैं। सूड के बाद कान है। कान में ग्यारह गणधर हैं -इन्द्र, अग्नि, वायुभूति आदि । भगवान महावीर के मुखारविंद से निकली हुई वाणी सुनने वाले सबसे पहले श्रोता गणधर थे अतः उन्हें कानों में रखा गया है। ज्ञानरूपी हाथी के चार पैर हैं ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपश्चर्या । इस की आँख है-केवल ज्ञान । हाथी के दो दाँत हैं—धीरज और धर्म । जरा विचार कीजिये कि उनकी कल्पनाशक्ति कितनी जबर्दस्त और सही थी ? ठीक तरह से समझाने के लिए उन्होंने रंग-परिवर्तन भी किया है। ज्ञान-रूप हाथी का खाद्य क्षमा आदि को बताया है तीर्थंकर एवं गणधर मोक्ष में गए तो उसका आधार भी कछ होना चाहिए। अतः आधार आचारांग, सूयगडांग आदि शास्त्रों को बताया गया है। मिथ्यात्वरूपी मक्षिका को उड़ाने के लिये पूंछ है । महावत का आकार बताया है, जिसके हृदय में दया, दान और सत्य हो वही ज्ञान-कुजर को चला सकता है। महावत के पास अंकुश भी होना चाहिए अतः उपदेश-रूपी अंकुश दिया गया है। अम्बारी के चार खंबे, ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप हैं । महावत की छत्री में लिखा है -- 'देव अगोषी ..।' देव में गुरु और दया से धर्माचरण करना। अंबारी की ध्वजा में लिखा गया है 'जिन्होंने क्रूर कर्म हटा दिया है, उनकी मैं वंदना करता हूं।' इन सबके अलावा चित्र में दो तोते हैं, जिनका मुह एक है और तीन मछलियों की आकृतियाँ हैं, जिनका मुंह भी एक है। इनके द्वारा उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल का भाव बताया गया है। उसी चित्र में एक चवन्नी के जितनी जगह में पैंसठ हाथी भी बनाए हैं, जिनके चारों पैर, सूढ़, पीठ, पूछ आदि सभी अंग हैं। चित्र के नीचे उन्होंने एक दोहा लिखा है ____ ज्ञानी समझे ज्ञान में, अनसमझा चित्राम् ।... यानी ज्ञानी पुरुष तो ज्ञान से इस चित्र के रहस्य को समझ लेगा किन्तु अज्ञानी इसे केवल सुन्दर चित्र मानेगा। 'ज्ञान कुजर दीपिका' में चित्र के . विषय में विस्तृत विवेचन दिया गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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