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सर्वस्य लोचनं शास्त्रम्
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श्री उत्तराध्ययन सूत्र में भी कहा गया है
जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिए ।
एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ ॥ अर्थात्-भयंकर युद्ध में हजार-हजार दुर्दान्त शत्रुओं को जीतने की अपेक्षा अपने-आपको जीत लेना ही सबसे बड़ी विजय है ।
वस्तुतः ऐसी विजय ही आत्मा को संसार-भ्रमण से बचा सकती है। मानव-जीवन एक संग्राम है । स्वयं तीर्थंकरों ने भी इसी जीवन में कर्मों के साथ लड़कर विजय प्राप्त की थी। इस जन्म में अगर विषय-विकारों पर विजय प्राप्त न की गई तो फिर और कोई भी जीवन इस कार्य को सम्पन्न न कर सकेगा । 'आचारांग सूत्र' में कहा भी है
जुद्धारियं खलु दुल्लहं । विकारों से युद्ध करने के लिए फिर यह अवसर अर्थात् मानव-जन्म मिलना दुर्लभ है।
इसलिए मुमुक्षु को बाह्य प्रपंचों से ध्यान हटाकर अपने अन्दर की उलझनों को सुलझाना है तथा आन्तरिक शत्रुओं को ही जीतना है, जिससे आत्मा का लाभ होगा । बाहरी युद्धों से कुछ बनने वाला नहीं है सिबाय बिगड़ने के । आचारांग सूत्र में ही बताया है
इमेण चेव जुज्झाहि, .
कि ते जुज्झण बज्झओ। जीव को कितनी सुन्दर प्रेरणा दी है कि-अपने अन्तर के विकारों से ही युद्ध कर । बाहर के युद्ध से तुझे क्या प्राप्त होगा ? ____ तो बंधुओ, आप समझ गए होंगे कि जहाँ बाहरी युद्ध में जीतने पर भी आत्मा अवनति के गर्त में गिरती है वहाँ आंतरिक युद्ध में जीतने पर वह निरंतर ऊँची उठती जाती है । अतः हमें आत्मिक शत्रुओं से ही जीतना है,
और उन्हें जीतने के उपाय सत्-शास्त्रों में खोजकर काम में लेना है। ऐसा करने पर ही हमारा इह लोक और परलोक सुधर सकेगा।
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