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सर्वस्य लोचनं शास्त्रम्
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कि उस समय पुद्गलों में सरसता थी। एक बार कल्पवृक्ष का फल खाया तो तीन दिन तक भूख नहीं लगती थी । यह पहले आरे की बात है। दूसरे आरे में एक बार खा लेने पर दो दिन तक भूख का अनुभव नहीं होता था । तीसरे आरे में आज खा लेने पर कल यानी अगले एक दिन खाने की इच्छा नहीं होती थी और चौथे आरे में प्रतिदिन एक बार खा लेना काफी होता था ।
वर्तमान में पाँचवाँ आरा चल रहा है, इसमें प्रतिदिन दो वक्त खाने की आवश्यकता है, पर इसके अलावा भी फलाहार, चाय-नाश्ता आदि चलता रहता है । वैसे इस पंचमकाल में दो वक्त खाना पर्याप्त हो जाता है । इसके बाद आयेगा छठा आरा। उसके बारे में तो क्या कहें-'हाथ सूखा और बालक भूखा ।' यह बात ही सच होगी। यानी इतनी भूख लोगों को लगेगी।
तो काल के मुताबिक शरीर की स्थिति होने के कारण संत अगर दो वक्त आहार करते हैं तो यह शास्त्र-विरोधी बात नहीं है। शास्त्र में तो यह भी कहा गया है-'काले कालं समाचरेत् ।' यानी समय और काल देखते हुए जिस क्षेत्र में जैसा रिवाज हो, वैसा करो। _____ साधु के लिए नियम है कि वह समय देखकर भिक्षा के लिये निकले । और भिक्षा का समय क्षेत्रों के रिवाज से बदलना पड़ता है। अगर हम ‘चिंचपोकली' गाँव में चातुर्मास करें तो वहाँ लोग नौ बजे खा-पीकर घर से अपनेअपने काम के लिए निकल जाते हैं और दस बजे बहनें चौका-बर्तन भी निपटा लेती हैं । उस स्थिति में संतों को दस बजे भिक्षा के लिए पहुंचना चाहिए । और पंजाब में लोगों के खाने का समय बारह बजे के बाद प्रारम्भ होता है अतः वहाँ साधु-मुनिराजों को ही अपना समय बदलना पड़ता है। ____ तो मैं आपको मराठी कवि के पद्य के बारे में बता रहा था जिसने कहा है-'अज्ञान को भस्म करो तथा ज्ञान के स्वरूप को समझो।' कुछ व्यक्ति कहते हैं-ज्ञान की अपेक्षा अज्ञान में ही अधिक सुख है। क्योंकि-'बहुजाणे घणा ताणे ।' यानी अज्ञानी तर्क-वितर्क नहीं करता पर ज्ञानी बहुत खींच-तान करता है।
ऐसा मानने वाले बड़ी भूल करते हैं । अज्ञान में ही जो आनन्द मान लेगा वह जीवन और जगत् के रहस्य को कैसे समझेगा ? पाप और पुण्य के अन्तर को न समझते हुए वह किस प्रकार मुक्ति के लिए प्रयत्न करेगा और मुक्तावस्था पा सकेगा ? अज्ञान का केवल यही परिणाम होगा कि जीव जन्ममरण करता चला आ रहा है और करता ही चला जाएगा ।
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