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आनन्द-प्रवचन भाग-४
इस संसार में ज्ञान जैसा पवित्र पदार्थ दूसरा नहीं है। मराठी भाषा में भी कहा है---
अज्ञानाचे भस्म करावे, ज्ञान स्वरूपी मन विचारावे ।
त्यागुनि माया नार, अजुनी तरी, मना कर विचार ॥ कहते हैं-अज्ञान को भस्म करो और ज्ञान तत्व को आत्मा में प्रतिष्ठित करो। हम भी साधु भाषा में कहते हैं अज्ञान को हटाओ और सम्यक् ज्ञान को ग्रहण करो, तभी आत्मा संसार की वास्तविक स्थिति को समझकर उससे मुक्त हो सकेगी । हमें जानना चाहिए कि आत्मा क्या है ? उसका शुद्ध स्वरूप कैसा है और क्या करने पर वह अपने शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति कर सकती है ? हम शास्त्रों की आज्ञा का बराबर पालन नहीं कर सकते किन्तु जिन महानआत्माओं ने ऐसा किया है वे ही भव-सागर को पार कर सके हैं । ____शास्त्रों में गौतमस्वामी का वर्णन आता है और उनके विशेषणों में एक विशेषण भी बताया जाता है - 'उढ्ढ जाणू अवोसिरे।' __ वे किस प्रकार आत्म-चिंतन करते थे वह दृश्य हमारे समक्ष आता है कि उनका मस्तक थोड़ा झुका है, जानु यानी घुटने थोड़े उठे हुए हैं और दृष्टि नत है। ऐसा क्यों ? इसलिए कि उनकी दृष्टि इधर-उधर न जाये, कौन आया, कौन गया ? इसका तनिक भी ख्याल न रहे । ऐसी एकाग्रता होने पर ही गहन चिंतन होता है । आज आप एक सामायिक भी मौन रहकर एक आसन नहीं कर सकते । उस काल में भी इधर-उधर की सारी बातें करते रहते हैं और कई बार तो स्थानक में सामायिक काल में भी मीटिंग करते हए आप लोग झगड़ पड़ते हैं । पर चाहते हैं उस सामायिक का भी बड़ा भारी फल प्राप्त करना । पर यह कैसे संभव हो सकता है ?
तभी मैंने गौतमस्वामी के विषय में कहा कि वे किस स्थिति में आत्मचिंतन करते थे। और केवल चिंतन ही नहीं उनका प्रत्येक कार्य-कलाप तपोमय, ज्ञानमय एवं धर्ममय होता था। दो दिन उपवास करना, तीसरे दिन पारणा करना और उसके लिए भी स्वयं ही भिक्षा लाना। भिक्षा लाकर भगवान् को दिखाने के पश्चात् कहीं पारणा होता था। यह तो थी उनके आहार की विधि ।
इसके अलावा वे दिन के पहले प्रहर में स्वाध्याय करते थे, दूसरे प्रहर में चिंतन करते थे और तीसरे प्रहर में आहार के लिये जाते थे।
हमारे भाइयों को शंका होगी कि उस समय मुनि एक बार गोचरी के लिये जाते थे तो आज संत दो बार क्यों जाते हैं ? इसका कारण यह है
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