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________________ ज्ञान की पहचान २६५ ___ ध्यान में रखने की बात है कि व्यक्ति को ज्ञान हासिल करने में बड़ी सावधानी रखनी चाहिये ताकि सम्यक् ज्ञान के स्थान पर हम धोखा न खा जाय। यानी मिथ्याज्ञान ग्रहण · न कर लें। मिथ्याज्ञान भी मनुष्य को भ्रम में डाल देता है। मान लीजिये आप नदी के तट पर घूमने गए । वहाँ जल में चमकती हुई सीप देखी । सीप चाँदी की तरह चमकती है अतः उसे आप सीप समझ लें तो क्या वह सम्यक्ज्ञान हुआ ? नहीं, वह मिथ्याज्ञान है। इसीप्रकार बिना आत्मा को स्पर्श किये अर्थात् बिना भावना के केवल शरीर से की जाने वाली पूजा, उपासना या अन्य क्रिया को आप भक्ति मानें तो वह सब भी ज्ञानमय नहीं है, केवल दिखावा ही है। बहुत से व्यक्ति दान देने, को पैसा पानी में बहाना और तपस्या करने को व्यर्थ शरीर का सुखाना मानते हैं यह अज्ञान है। ___ इसप्रकार मिथ्या ज्ञान और अज्ञान भी ज्ञानवत् दिखाई देते हैं तथा मनुष्य उसके म्रम में पड़कर अपने आपको ज्ञानी समझ बैठता है। परिणाम यह होता है कि सम्यकज्ञान जहाँ आत्मा को ऊँचा उठाता है, वहां ये झूठे ज्ञान उसे ले डूबते हैं। शास्त्रों में कहा जाता है --- जहा अस्साविणि णावं, जाइअंधो दुरुहिया। इच्छइ पारमागंतु अंतरा य विसीयई ॥ -सूत्रकृतांग १।१।२।३१ अज्ञानी साधक उस जन्मांध व्यक्ति के समान है जो छिद्रवाली नौका पर चढ़कर नदी के किनारे पहुंचना तो चाहता है, किन्तु किनारा आने से पहले ही बीच-प्रवाह में डूब जाता है। वस्तुतः ज्ञान से रहित व्यक्ति अंधे के समान होता है और वह अपनी असहायावस्था में मिथ्याज्ञान या अज्ञानरूपी छिद्र वाली नौका का आश्रय लेकर पार उतरना चाहे तो यह कैसे संभव हो सकता है । यह तो ठीक उसी प्रकार हुआ, जैसे : 'अधो अंधं पहंणितो, दूरमद्धाणुगच्छइ ।' अन्धा अंधे का पथ प्रदर्शक बनता है, तो वह अभीष्ट मार्ग से दूर भटक जाता है। इसीलिये बंधुओ, हमें सच्चा ज्ञान हासिल करना चाहिये तथा मिथ्या ज्ञान के भ्रम में पड़कर इस दुर्लभ जीवन को निरर्थक नहीं जाने देना चाहिये । सच्चा ज्ञान हमें शास्त्रों के अध्ययन से प्राप्त हो सकता है। सत्शास्त्र अथवा आध्या त्मिक शास्त्र-मुक्ति का सही मार्ग बता सकते हैं। वे ही बताते हैं कि आत्मा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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