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________________ आनन्द-प्रवचन भाग-४ सम्यक् प्रकार से आराधन किया तथा विषय-विकारों का सर्वथा त्याग करके अपनी आत्मा को पूर्णतया विशुद्ध बनाया। जब आत्मा अपने निजस्वरूप को प्राप्त हुई तो सम्पूर्ण कर्म उससे अलग हो गए। इस प्रकार आत्मा से समस्त दोष दूर हो जाने पर उन्हें दिव्य-दृष्टि की प्राप्ति हुई । . पर हम उनके मुकाबले में क्या करते हैं, जिससे हमें ऐसी दृष्टि प्राप्त हो सके ? कुछ भी नहीं । न अभी हमारी श्रद्धा मजबूत है, न ज्ञान ही सम्यक् है, न हम उत्तम चारित्र का पालन करते हैं, और तपस्या तो होती ही नहीं। इसके अलावा हमारे हृदयों से राग-द्वेष की भावना नहीं जाती, 'मेरा' और 'तेरा' नहीं छूटता, एक रुपया देकर दानी कहलवाना और तनिक सा किसी का कार्य करके सेवाभावी कहलाने की आकांक्षा बनी रहती है। फिर बताइये हमें हमारे कौन से उत्तम कर्म का कोई शुभ फल प्राप्त हो सकता है ? किन्तु भाइयो ! हमें अपनी आज की स्थिति से तनिक भी निराश होने की आवश्यकता नहीं हैं। क्योंकि इस जगत में असंभव कुछ भी नहीं है। न पुण्य-संचय करना असंभव है, न स्वर्ग प्राप्त करना असंभव है और न ही संसार से मुक्त होना असंभव है। अगर यह सब संभव नहीं होता तो अर्जुनमाली जैसा पापी और अंगुलिमाल जैसा क्रूर डाकू भी अपनी आत्मा का उद्धार कैसे कर लेता ? हमें विश्वास रखना चाहिये कि हमारी आत्मा अभी पापों से कितनी भी लिप्त क्यों न हो, अगर हम शुभ और दृढ़ भावना से प्रयत्न करेंगे तो धीरेधीरे इसे निश्चय ही कर्म-मुक्त कर सकेंगे। भले ही एक जन्म में यह कार्य पूरा न हो पाए तो भी चेत जाने पर इसी जीवन में इतना कुछ उपार्जन कर लेंगे कि आगामी जन्मों में क्रमशः हमारी आत्मा मुक्तावस्था के समीप होती जाएगी। पर आवश्यकता है इसके लिये सतत प्रयत्न और हार्दिक लगन की। एक दोहा आपने कई बार सूना होगा रसरी आवत जात ते सिल पर परत निसान । करत-करत अभ्यास के जडमति होत सुजान । अर्थ सरल और स्पष्ट है कि जिस प्रकार कुए के पत्थर पर बार-बार रस्सी के आने जाने से गहरा निशान हो जाता है, उसी प्रकार सतत अभ्यास करते रहने से महामूर्ख और मोटी बुद्धि वाला व्यक्ति भी पंडित बन जाता है। तो मैं आपसे यह कह रहा था कि हमें अपने वर्तमान जीवन से असंतुष्ट और निराश न होकर अपने भविष्य को उज्ज्वल बनाने का प्रयत्न आरंभ कर देना चाहिये और उसके लिये सर्वप्रथम आध्यात्मिक ज्ञान हासिल करना चाहिये। यह ज्ञान हमें शास्त्रों के अध्ययन से तथा सद्गुरुओं के उपदेश से प्राप्त हो सकता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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