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________________ आचारः परमोधर्मः २५६ तात्पर्य यही है कि तैरने पर पार हुआ जाता है इस बात का विश्वास और किस प्रकार तैरा जाता है इसका ज्ञान भी व्यर्थ होता है, जबकि पानी में गिरा हुआ व्यक्ति अपने हाथ-पैरों से क्रिया नहीं करता । इसीप्रकार धर्म पर रहने वाली श्रद्धा और धार्मिक क्रियाओं का ज्ञान भी सार्थक नहीं होता जब तक कि उसे व्यवहार में न लाया जाय । स्पष्ट है कि आचरण अथवा चारित्र का महत्व सर्वोपरि है अतः प्रत्येक व्यक्ति को अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार चारित्र का पालन करना चाहिए । आपने श्रमणपना और हमने साधुपना स्वीकार किया हैं अतः आपका देशचारित्र और हमारा सर्व चारित्र है । आपका चारित्र भी कम नहीं है तथा आत्मा के उत्थान में कारणभूत है, पर पालन इसका ईमानदारी से होना चाहिए | अन्यथा हाथी के दाँत खाने के और तथा दिखाने के और यह कहा - वत अगर चरितार्थ हुई तो फिर सब गुड़-गोबर होने वाला है । तो आपने आज के कथन का सार समझ लिया होगा । संक्षेप में वह इस प्रकार है द्वादशांग का सार है आचार । आचार का सार - अंगुहो यानी आज्ञा के पीछे चलना | उसका भी सार - प्ररूपणा, यानी परोपदेश । प्ररूपणा का सार - चारित्र का पालन करना | चारित्र का सार - निर्वाण । तथा निर्वाण का सार - अब्बावाहं जिणाहुति । यानी जिनेश्वर भगवान् ने फरमाया है कि अगर निर्वाण प्राप्त करना है तो पहले आचार को ग्रहण करो। फिर भगवान् की आज्ञा के पीछे चलो | बाद में प्ररूपणा से औरों को सन्मार्ग पर लाओ, फिर चारित्र का पालन करो जिससे निर्वाण प्राप्त हो । निर्वाण याने अक्षय शांति । आत्मा उस स्थान पर पहुंच जाती है जहाँ किसी भी प्रकार की बाधा या पीड़ा नहीं होती । CTET इसलिए नहीं होती कि शरीर नहीं होता और पीड़ा नहीं होती क्योंकि मन नहीं होता । तो बंधुओ, समस्त पीड़ाओं एवं बाधाओं से रहित, अक्षयशांति और सुख प्रदान करने वाले ऐसे अपूर्व स्थान पर पहुंचने के लिए उत्कृष्ट चारित्र ही एक मात्र साधन है । अगर हम शुद्धचारित्र का पालन करते हैं तो हमारे दर्शन और ज्ञान का भी सम्यक् उपयोग हो सकता है । अन्यथा ये भी निरर्थक साबित हो जाएँगे । श्रद्धा का कार्य आपको धर्म पर विश्वास रखना तथा ज्ञान का कार्य आपको मुक्ति के मार्ग की पहचान कराना है । किन्तु चारित्र का काम है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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