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आनन्द-प्रवचन भाग-४
श्वास भी कई-कई वर्षों बाद लेते हैं । ऐसी स्थिति में आयुष्य के दीर्घ होने से वे पूर्व में सीखे और पढ़े हुए ज्ञान का वहाँ उपयोग करते हैं । 'श्री उत्तराध्ययन सूत्र' में कहा भी गया
जहा सुइ ससुत्ता पडियावि न विणस्सई ।
एवं जीवे ससुत्ते संसारे न विणस्सइ ॥ जैसे धागे में पिरोई हुई सुई गिर जाने पर भी गुम नहीं होती, उसी प्रकार ज्ञान रूपी धागे से युक्त आत्मा संसार में भटकता नहीं ।
ऐसा क्यों कहा गया है ? इसीलिए कि एक बार ज्ञान प्राप्त कर लेने पर आत्मा में से उसके संस्कार जाते नहीं हैं और वह जिस लोक में भी जाती है साथ बने रहते हैं।
सारांश यही है कि दर्शन अथवा श्रद्धा और ज्ञान, ये दोनों ही इस लोक और परलोक दोनों ही स्थानों पर काम आते हैं। किन्तु अब चारित्र के विषय में भी सुनिये कि भगवान् ने उसके बारे में क्या कहा है ? ___ दर्शन और ज्ञान के विषय में पूछ लेने के पश्चात् गौतमस्वामी भगवान् से फिर पूछते हैं- "भगवन् ! चारित्र इस लोक में ही काम आता है या परलोक में भी ?' इसका उत्तर भगवान् ने दिया "चारित्र इस लोक में ही काम आता है परन्तु परलोक में इसका फल मिलता है।"
आप समझ गये होंगे बंधुओ, कि दर्शन और ज्ञान जहाँ इस लोक और परलोक दोनों ही स्थानों पर काम आता है, वहाँ चारित्र इस लोक में ही अपना काम करता है । अतः इसके लिए शरीर तो चाहिए ही, पर शरीर प्राप्त करने पर चारित्र का भी अधिक से अधिक पालन करना चाहिए। क्योंकि चारित्र के अभाव में ही अगर जीवन समाप्त हो गया तो फिर कब चारित्र का पालन किया जा सकेगा ? और कैसे आत्मा का उद्धार होगा? ____ यह तो निश्चय है कि चारित्र का पालन किये बिना आत्मा संसार-मुक्त नहीं हो सकती, चाहे दर्शन और ज्ञान आत्मा में क्यों न विद्यमान रहें। एक गाथा में बताया गया है
जाणंतोऽवि य तरिउ, काइय जोगं न जुजइ नईए।
सो बुज्झइ सोएणं एवं नाणो चरणहीणो । अगर कोई व्यक्ति तैरना जानते हुए भी जल-प्रवाह में कूदने पर हाथ-पांव न हिलाए तो प्रवाह में डूब जाता है। इसी प्रकार कार्य जानते हुए भी यदि कोई उस पर आचरण न करे तो वह चारित्रहीन व्यक्ति संसार-सागर को कैसे पार कर सकता है ?
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