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शास्त्र सर्वत्रग चक्षुः
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. इतने उत्तम फलों की प्राप्ति व्यक्ति को तभी होती है जबकि वह अपने धन का पहले सदुपयोग करता है तथा उसे उत्तम कार्यों में व्यय करता है। अगर वह ऐसा न करे तो वह धन उसको कोई लाभ नहीं पहुँचा सकता।
बंधुओ, प्रसंगवश धनके विषय में काफी बता दिया गया है। अभिप्राय यही है कि जिस प्रकार का सदुपयोग करने पर वह अनेक उत्तम फल प्रदान करता है, उसीप्रकार मन में रहे हुए ज्ञान और उत्तम विचार भी क्रियान्वित करने पर ही फल प्रदान करते हैं अन्यथा तिजोरी में रखे हुए धन के समान वे भी व्यक्ति के लिए सर्वथा निरर्थक साबित होते हैं। ____अब हमारे सामने दूसरी बात आती है व्यवहार अथवा क्रिया की । कुछ व्यक्ति कहते हैं 'मन में कुछ भी रहे उससे क्या आता-जाता है ? ऊपरी व्यवहार ठीक होना चाहिये ।'
उनकी यह बात भी ठीक नहीं है । मन में कपट रखते हुए किसी स्वार्थवश दूसरे से प्रेम का व्यवहार रचना, दुनियां में पूजनीय बनने के लिये भगवान् की भक्ति एवं पूजा-पाठ का ढोंग करना तथा अपने से श्रेष्ठ व्यक्ति को देखकर मन में ईर्ष्या, जलन और उसकी अवनति की भावना रखते हुए उसकी झूठी सराहना करना, ये सब क्रियायें अर्थात् प्रेम, भक्ति, पूजा या प्रशंसा जो कि मन से न को जाकर केवल शरीर से की जाती हैं उनका क्या महत्त्व है ? कुछ भी नहीं । शरीर की क्रिया के साथ-साथ जब तक मन की भावनाएँ भी न जुड़ी हों तब तक कोई क्रिया फलवती नहीं हो सकती। कहा भी है--
"दान - शील - तपः सम्यगभावेन भजते फलम् ।" भावना पूर्वक किया जाने वाला दान, शील और तप ही अपना श्रेष्ठ फल प्रदान करता है।
अभी मैंने आपको बताया भी था कि शरीर में जिस प्रकार प्राणों का महत्त्व है, उसीप्रकार दान, शील एवं तप के लिये भावना का महत्त्व है । इसके अभाव में ये सब निष्फल साबित होते हैं।
यह तो स्पष्ट साबित होता है कि हमारे जीवन में ज्ञान और क्रिया दोनों का ही समान उपयोग होना चाहिए। दूसरे शब्दों में निश्चय और व्यवहार दोनों ही जीवन में उतरने चाहिए। आपने एक अधे और एक लंगड़े की कहानी सुनी होगी। एक बार जबकि वे एक जंगल में थे वहाँ आग लग गई। दोनों को जान बचाने की पड़ी। किन्तु अंधा देख नहीं पाता था इसलिये चलने में असमर्थ था और लंगड़ा यद्यपि देख तो सकता था किन्तु चल नहीं पाता था । अतएव दोनों बड़ी कठिनाई में पड़ गये और उधर दावाग्नि बढ़ने लगी । पर अचानक ही उन्हें एक उपाय जान बचाने का सूझ गया और उसके
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