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आनन्द-प्रवचन भाग-४
शील, तप, दया, अहिंसा, सत्य तथा क्षमा आदि समस्त सद्गुणों का ज्ञान कर लेने से और उनकी विशेषताओं को जान लेने से ही उनका शुभ फल नहीं मिलेगा अपितु उन्हें अपने व्यवहार में उतारने पर उनका लाभ, पुण्योपार्जन या कर्मों की निर्जरा के रूप में मिल सकेगा । हम मानते हैं कि मन की पवित्रता और उसमें रहे हुये सुन्दर विचार श्रेष्ठ हैं। किन्तु उन्हें उपभोग में न लाने पर उनका लाभ कैसे हासिल हो सकता है ? जिस प्रकार तिजोरी में रखा हुआ धन जो सदा ताले में बंद रहता है। उसे खर्च नहीं किया जाता, व्यवसाय में नहीं लगाया जाता या ब्याज पर नहीं दिया जाता तो वह अपना उत्तम फल कैसे प्रदान कर सकता है ?
एक पाश्चात्य विद्वान् ने भी कहा है"Wahlth is not his that has it, but his that enjoys it."
-फ्रेंकलिन धन उसका नहीं है, जिसके पास है बल्कि उसका है जो उसका उपयोग करता है।
वास्तव में ही यह कथन बिलकुल सत्य है। धन उसी के लिए लाभदायक है जो उसका उपयोग दान देने में, दीन-दुखियों के अभावों को दूर करने में, ज्ञान प्राप्ति की संस्थाओं का निर्माण करने में अथवा ऐसे ही उत्तम कार्यों में करता है । शुभ कार्यों में लगाया हुआ धन पुण्य रूपी फल के रूप में उसे पुनः मिलता है। पर गाड़कर रखा हुआ अथवा ताले में बंद किया हुआ धन व्यक्ति के लिये सर्वथा निरर्थक साबित होता है। उसे कभी कोई छीन लेता है, चोर चुरा ले जाते हैं और अगर ऐसा न हुआ हो तो फिर व्यक्ति के मरने पर स्वयं ही यहीं छूट जाता है। अतः उसे सदुपयोग में लेना चाहिए ऐसा शास्त्र कहते हैं
लक्ष्मीः कामयते मतिम गयते कीर्तिस्तमालोकते, प्रीतिश्चुम्बति सेवते सुमगता नीरोगताऽलिंगति । श्रेयः संसृतिरभ्युपैति वृणुते स्वर्गोपभोगस्थितिः,
मुक्तिर्वाञ्छति यः प्रयच्छति पुमान् पुण्यार्थमर्थनिजम् ॥ अर्थात्-जो पुरुष श्रेयस्कर कार्यों में अपने धन का व्यय करता है, उसे स्वयं लक्ष्मी चाहती है, सद्बुद्धि खोजती फिरती है, कीर्ति उसकी ओर टकटकी लगाये रहती है, प्रीति उसका चुम्बन करती है, सुभगता उसकी सेवा करती है, नीरोगता उसका आलिंगन करती है, कल्याण परस्पर उसके सम्मुख आता है, स्वर्ग के उपभोग की स्थिति उसका वरण करती है और मुक्ति उसकी अभिलाषा करती है।
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