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________________ छः चंचल वस्तुए ँ १८५ 'आचारांगसूत्र' में एक दृष्टांत मैंने पढ़ा था- एक बालक ने अपने अज्ञानपने के कारण यह विचार किया कि मैं अपनी छाया को पकड़ें । यह सोचकर वह छाया को पकड़ने के लिये जल्दी-जल्दी चलने लगा । किन्तु छाया भी उतनी ही तेज उससे आगे चलती रही । तब वह बालक दौड़ने लगा कि दौड़कर उसे पकड़ ले, किन्तु वह जितना तेज दौड़ा, उसकी छाया भी ठीक उतनी तेजी से दौड़ती रही । बच्चा थक गया और जोर-जोर से हाँफने लगा । संयोगवश उसी समय एक मुनि उधर आ निकले और बच्चे की दशा देखकर उन्होंने उसका कारण पूछा— बालक ने अपनी परेशानी बता दी । संत मुस्कराने लगे और बोले -- ' वत्स ! तू छाया के पीछे इस प्रकार मत दौड़, मेरे साथ चल ।' मुनिराज ने जिधर छाया पड़ती थी उससे विपरीत दिशा में अपना रुख किया और उस बालक को अपने साथ चलाने लगे । बालक ने देखा कि इस प्रकार चलने में छाया उसके पीछे-पीछे चली आ रही है । इस बीच ही मध्याह्न भी हो गया और बालक ने छाया को बिलकुल अपने साथ देखा तो वह अत्यन्त प्रसन्न हो गया । यह उदाहरण शास्त्रकार धनके लिए, लालच और विकारी भावनाओं के लिए भी देते हैं । वे बताते हैं कि जिस प्रकार वह बालक छाया के पीछे दौड़ा तो उसे नहीं पा सका और जब छाया की ओर से मुँह मोड़कर चला तो छाया उसके पीछे-पीछे आने लगी । इसी प्रकार जो व्यक्ति सुख प्राप्त करने के लिये सांसारिक सुखों के पीछे दौड़ते हैं, उन्हें कभी सुख की प्राप्ति नहीं होती, क्योंकि ज्यों-ज्यों सांसारिक सुख भोगे जाते हैं, उन्हें अधिकाधिक भोगने की लालसा बढ़ती हैं । किन्तु जो व्यक्ति संसार के इन सुखों से मुँह मोड़कर विरक्ति की ओर चल देते हैं, उसे असीम सन्तोष का अनुभव होता है और संतोष के द्वारा सच्चे सुख का । आचार्य चाणक्य ने भी कहा है संतोषामृततृप्तानां यत्सुखं न च तद्धनलुब्धानामित श्चेतश्च अर्थात् - संतोष रूपी अमृत से जो लोग तृप्त और सुख होता है वह धन के लोभियों को, जो नहीं प्राप्त होता । शान्तचेतसाम् | धावताम् ।। होते हैं, उनको जो शांति इधर-उधर दौड़ा करते हैं, (५) लक्ष्मी पाँचवीं चंचल वस्तु लक्ष्मी है । लक्ष्मी की चंचलता के विषय में सभी जानते हैं । हम आए दिन देखते हैं कि कल ऐश्वर्य में लौटने वाला व्यक्ति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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